– रूपेश कुमार सिंह
“पोशम्पा भई पोशम्पाडाकिये ने क्या कियासौ रुपये की घड़ी चुराईअब तो जेल में जाना पड़ेगाजेल की रोटी खानी पड़ेगीजेल का पानी पीना पड़ेगाअब तो जेल में जाना पड़ेगा…..”
बच्चों के झुंड ने रूपा को हाथों के बीच धर लिया। चोर…चोर… कहकर, बच्चे चीखने लगे, हँसने लगे, कूदने लगे। झूमने लगे, गाने लगे और आसमान को चूमने के लिए ऊंची-ऊंची छलांग लगाने लगे।
रूपा लम्बा कूद रही थी। बाकी बच्चों में साल-दो साल बड़ी है। कद-काठी भी औरों से ज्यादा उभरी हुई है। छठी जमात के पेपर दिये हैं। रंग गोरा, उम्र 12 साल है।
एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा और शाम ढलते तक, माँ-बाप के मजदूरी से वापसी तक बच्चों की धमाचौकड़ी लगी रहती थी। रूपा को रस्सी कूदना खूब भाता था। गाँव से दूर सड़क के उलटे हाथ पर दो-चार झोपड़ी के सामने एक खाली मैदान पर बच्चों का जमघट लगता है। सड़क के सीधे हाथ पर एक अकेली दुकान है। नयी-नयी प्लाटिंग के बाद साठ वर्षीय हरक सिंह ने मकान के एक कमरे में दुकान खोली है। गाँव से दूर होने की वजह से दुकान चलती-चलाती तो है नहीं, लेकिन हरक सिंह रोज दोपहर बाद दुकान खोलता था।
‘‘रिंकी, खुशी, मोहन, जगत, शिवा, रानू….सब सुनो! अब हम लोग पोशम्पा नहीं, बल्कि रस्सी कूद खेलेंगे…ठीक है?’’ रूपा ने रस्सी अपने हाथ में समेटते हुए जोर से कहा।
बच्चे खुशी-खुशी ताली बजाते हुए एक सर्कल में जमा हो गए। रूपा सर्कल के बीच में रस्सी लेकर कूदने लगी। बच्चे नम्बरिंग करने लगे।
दुकान में बैठकर हरक सिंह रूपा को न जाने कबसे ताड़ता रहता था। रूपा की साँसों के उतार-चढ़ाव और उछलकूद पर हरक की गिद्ध निगाहें गढ़ी रहती थीं।
‘‘आओ-आओ बच्चों…देखो दादू आपके लिए क्या लाये हैं।’’ टाफी देने के बहाने उस दिन हरक सिंह ने रूपा के बदन पर पहली बार हाथ फेरा था।
‘‘बच्चों! टाफी कैसी लगी?’’ हरक ने पूछा।
‘‘अच्छी है।’’ बच्चों ने जवाब दिया।
‘‘कल रूपा तुम सबके लिए मेरी दुकान से टाफी लेकर आएगी…आएगी न रूपा?’’ हरक ने रूपा का हाथ पकड़ते हुए सवाल किया।
रूपा हरक की हरकत समझ न सकी। उसने मासुमियत के साथ ‘हां’ में मुंडी हिला दी।
मई का तपता महीना। गर्म हवाएं लोगों को झुलसा रही हैं। गर्मी के कारण सड़क पर लोगों की आवाजाही कम है। दोपहर एक बजे बच्चे स्कूल से घर वापस लौट रहे हैं। आज हरक सिंह ने दोपहर में ही दुकान खोल रखी है। शटर आधा ही खुला है।
रूपा के इंतजार में हरक बाहर की ओर झांक रहा है। इत्तेफाक से रूपा का घर उस दिशा में अकेला है। एक-एक करके सारे संगी-साथी छूटते जाते हैं। अन्त में रूपा अपनी झोपड़ी में पहुंचती है। आज हरक सिंह का इरादा नेक नहीं है। जिस्म की हवस ने उसे अंधा बना दिया है। शिकारी की तरह वह रूपा को जकड़ने के लिए जाल बिछाकर बैठा है।
‘‘रूपा सुनो, बच्चों के लिए टाफी ले जाओ।’’ हरक ने दुकान से बाहर आते हुए कहा।
‘‘दादू! शाम को खेलते वक्त ले लेंगे, अभी मैं घर जा रही हूं।’’ रूपा ने जवाब दिया।
‘‘अरे! अभी भी ले जा, शाम को और भी दूंगा।’’ हरक रूपा का हाथ पकड़कर दुकान के नीचे बने गोदाम में ले गया।
चिड़िया पिंजड़े में कैद हो चुकी थी। चीख-पुकार, दर्द-कराह, रोने की आवाजें चहारदीवारी के भीतर दम तोड़ रही थी। स्कूल का बैग पीठ से छिटक चुका था। कपड़े के काले जूते मुँह फिराये उल्टे पड़े थे। छाती पर तह लगा सफेद दुपट्टा उसके ही गले की फांस बन चुका था। बाल बिखर चुके थे, हेयर पिन और हेयर बैंड के निकल जाने से। आंखों का काजल गालों के रास्ते गर्दन तक टपक रहा था। ‘‘विद्या परम बलम्’’ लिखा हुआ बैच उसके सूट से अलग हो चुका था।
अस्सी किलो के भार तले रूपा बुरी तरह दब चुकी थी। उसकी साँसें उखड़ने को तैयार थीं। हाथ बेजान थे। शरीर शिथिल हो चुका था। चीख अन्दर ही दफन हो चुकी थी। कुछ देर संघर्ष के बाद रूपा अचेत हालत में सुस्त हो जमीन पर चित थी। जैसे मानो उसने अपनी हार मान ली हो। एकाएक हुए हमले ने रूपा को संभलने का कोई मौका नहीं दिया। वह नहीं समझ सकी कि उसके साथ क्या हो रहा है।
हरक सिंह अपने नापाक मंसूबे में कामयाब हो चुका था।
कुछ देर बाद रूपा बेहोशी से बाहर आयी, लेकिन सब कुछ तार-तार हो चुका था। उसकी सफेद सलवार जांघ से नीचे थी। योनि के इर्द-गिर्द खून के धब्बे थे। शरीर उठने से जवाब दे रहा था। आँख खुली तो सामने हरक तमंचा लिये कुर्सी पर बैठा था। रूपा ने नजरें फेर लीं। आँसुओं की तेज धार फर्स पर दौड़ रही थी। एकाएक हरक ने फिर से रूपा के बाल पकड़ लिये और…
‘‘मैं बहुत खतरनाक आदमी हूँ। यदि तूने किसी को कुछ बताया तो तेरे पूरे परिवार को खत्म कर दूंगा। तेरे माँ-बाप जहाँ काम करते हैं, उन्हें वहाँ से बाहर करा दूंगा। तेरी झोपड़ी में आग लगा दूंगा। तुझे और तेरे परिवार को बर्बाद कर दूंगा।’’ हरक ने तमंचे की नोंक रूपा के मुँह में भरते हुए उसे खूब धमकाया।
‘‘चल अब उठ और अपने घर जा।’’ हरक ने रूपा को लात मारी और बाहर की ओर आ गया।
अपने आप को समेटते हुए रूपा उठी और घर की ओर चल पड़ी। उसकी आँखें सूख चुकी थीं। भय ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था। वह आतंकित थी।
सड़क सुनसान थी। बेतहाशा गर्मी के बावजूद रूपा पूरी तरह ठंड़ी पड़ चुकी थी। मानो मृत शरीर में तब्दील हो गयी हो जैसे। उसकी नफरत का ठिकाना न था, लेकिन उसने खून का घूठ पीना ही मुनासिफ समझा।
आज शाम अपने संगी-साथियों का शोरगुल रूपा को काट रहा था। बुलाने पर भी वो झोपड़ी से बाहर नहीं आयी। देर शाम माँ-बाप दिहाड़ी से वापस आये। रूपा चटाई पर लेटी थी। वह अपने माँ-बाप की इकलौती संतान है। हर रोज काम से आने पर वह खिलखिलाकर माँ-बाप से मिलती थी, लेकिन आज उसने तबियत खराब होने का बहाना बना दिया। न वह उठी और न ही उसने खाना खाया।
रात भर हरक की हरकतें और धमकियां उसके मन-मस्तिष्क को झकझोरती रहीं। सुबह हुई, लेकिन रूपा के जीवन में जैसे अंधकार भर चुका था। इस अंधेरे की कोई सुबह नहीं है, यह मान कर उसने खुद को सामान्य करने की कोशिश शुरू कर दी। आगे के परिणाम से वह अंजान थी। एक दुर्घटना की तरह वह उस मंजर को भूलना चाहती थी।
हरक की दुकान पर ताला पड़ चुका था। उसके बाद उसने दुकान की ओर लौटकर नहीं देखा। सामने की सड़क और हरक की दुकान रूपा को हर वक्त डराने लगी थी। रूपा ने स्कूल जाना बंद कर दिया। रस्सी कूदना, पोशम्पा खेलना और बच्चों के साथ मस्ती करना छोड़ दिया। कई रोज लगातार छोटे साथी रूपा को खेलने के लिए बुलाने आये, लेकिन वह झोपड़ी से बाहर नहीं निकली। धीरे-धीरे उसके घर के सामने बच्चों का जमावड़ा घटने लगा। और चंद दिनों में ही रूपा के बिना मैदान वीरान हो गया।
कई महीने यूं ही बीत गये। माँ-बाप सुबह काम पर जाते और रात को आते। आस-पास कोई पड़ोस था नहीं, इसलिए रूपा के साथ हुए हादसे का उन्हें पता ही नहीं चला। छुटपुट तकलीफें रूपा सहन करती रही, लेकिन बच्चा भी ठहर सकता है, इसका उसे अंदाजा नहीं था। एक रात उसे पेट में जबरदस्त दर्द हुआ, साथ में उल्टी भी। रात जैसे-तैसे कटी। सुबह माँ-बाप रूपा को लेकर जिला अस्पताल पहुंचे। रूपा बहुत घबराई हुई थी। महिला डाक्टर को संदेह हुआ। उसने अल्ट्रासाउंड कराने को कहा। पता चला रूपा चार माह की गर्भवती है।
‘‘तुम्हें पता है कि तुम्हारे पेट में बच्चा पल रहा है। यह सब कैसे हुआ? तुम तो अभी 12 साल की हो? तुमने किसके साथ संबंध बनाये कि तुम गर्भवती हो गयीं? किसका बच्चा है यह? ’’ डाक्टर ने एक ही साँस में रूपा से अनेक सवाल कर दिए।
रूपा निरूत्तर थी। उसके मुँह पर ताला पड़ गया। सिर्फ आँखें बह निकलीं। हरक की धमकियां लौट-लौट कर उसे कमजोर कर रहीं थीं। रूपा ने दोनों हाथों से अपने मुंह को छुपा लिया।
महिला डाक्टर ने सारी जानकारी रूपा के माँ-बाप को दी।
घर वापसी पर रूपा ने सारी बात माँ-बाप को बतायी। कुछ सूझ नहीं रहा था रूपा के माँ-बाप को।
लोक-लाज के डर से पहले तो रूपा का गर्भपात कराने की कोशिश हुई, लेकिन ऐसा करना खतरे से खाली नहीं था। इधर जिला अस्पताल से यह जानकारी स्थानीय सामाजिक संस्था को दी गयी। महिला कल्याण संस्था के साथ कुछ जागरूक लोग रूपा के घर पहुंचे।
‘‘यह बहुत जघन्य अपराध है। दोषी को सजा मिलनी ही चाहिए। पीड़ित के लिए थाना है, कोर्ट है, पूरी सरकारी व्यवस्था है। रूपा को न्याय जरूर मिलेगा। बस आपको थोड़ी हिम्मत करनी होगी।’’ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रूपा के माँ-बाप को समझाने का भरसक प्रयास किया।
‘‘हम गरीब लोग हैं साहेब। बदायूँ से यहां अपना पेट पालने आये हैं। किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं है हममें। वे बड़े लोग हैं। पैसे वाले हैं। नेताओं से भी उनकी दोस्ती है। आप लोग चले जाइए। हमें अपने हाल पर छोड़ दीजिए।’’ रूपा के पिता ने रोते-रोते सामाजिक कार्यकर्ताओं से चले जाने का अनुरोध किया।
गाँव के लोगों तक भी छन-छन के बात पहुंच रही थी। महिला कल्याण संस्था और स्थानीय ग्रामीण रूपा के समर्थन में खुल कर सामने आ गये। थाने का घेराव कर रिपोर्ट दी गयी। इधर मामला उठता देख हरक सिंह ने दबाव बनाना शुरू कर दिया। गुंडों को रूपा के घर भेज डराने और रिपोर्ट वापस लेने की पुरजोर कोशिश हुई। पैसे का लालच दिया गया। रात में गाड़ी भरकर संदिग्ध बदमाश रूपा के पिता को उठा ले गये। गांव के लोगों के विरोध के चलते बदमाश पिता को गांव से बाहर नहीं ले जा पाये।
कई दिनों के बाद पुलिस ने हरक सिंह को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। रूपा पर 164 के तहत बयान न देने का दबाव फिर बनाया गया। सामाजिक कार्यकर्ता भी मुस्तैद थे। इसलिए हरक सिंह की एक न चली। तीन माह से हरक सिंह जेल में है।
इधर रूपा को आठवां महीना चल रहा है। गरीबी के कारण रूपा के रख-रखाव और खान-पान का जिम्मा भी सामाजिक कार्यकर्ता निभा रहे हैं। दो माह से आशा कार्यकर्ती और आंगनबाड़ी के कार्यकर्ता भी रूपा की देख रेख में हैं।
तमाम कोशिशों के बाद भी रूपा गुम-सुम रहती है। गाँव के बच्चे अब उसके पास नहीं जाते हैं। वह भी अपना मोटा पेट लेकर किसी के सामने नहीं आती है। खुशी रूपा की हमउम्र है और उसके पास रहती है। बच्चों के बीच उसको लेकर क्या चर्चा होती है, इसकी जानकारी खुशी से मिलती रहती है। पूरा दिन उदासी भरा रहता है।
कभी कोर्ट तो, कभी अस्पताल के चक्कर जरूर लगते हैं। यहां भी मासूम बच्ची को इस अवस्था में लोग तरह-तरह से तांकते हैं। कुछ आकर पूछते हैं, तुम तो बहुत छोटी लगती हो और यह दशा? इस आठ माह में पता नहीं, रूपा कितनी बार बलात्कार की पीड़ा को अपने भीतर महसूस कर चुकी है। गाँव की महिलाएं अपनी तरह से तंज कसती हैं। माँ-बाप भी परेशान रहते हैं।
इस बार अस्पताल में डाक्टरों ने बताया कि अगले महीने आपरेशन करके बच्चे को जन्म दिया जाएगा। तब से रूपा और भी घबरायी हुई है।
(दिनेशपुर क्षेत्र में 12 साल की एक मासूम बच्ची के साथ हुई घटना पर आधारित सत्यकथा)