राख के ऊपर भीसुर्ख़, भुरभुरी राख होती है बिल्कुल सफेदबर्फ जैसी•••देखी है कभी?
राख नर्म होती है लकड़ी और कोयले से कई लाख गुणा नर्मउस नर्मी में होती है किसी के जज़्बात की कोमलता किसी के होने का एहसास।
इंसान से लाश और लाश से राख हो जाने का लम्बा सफर होता है वैसे, जिन्दा लाश में तब्दील हुई भीड़ का राख होना, न होना एक बराबर है।
सुनो! जब लाश नहीं रहती लाशलकड़ी नहीं रहती लकड़ी आकृति नहीं रहती अपने पहले रूप में बन चुकी होती है केवल राखतब होता है नया उत्सर्जन। लेकिन, उससे पहलेबहुत बदरंगबहुत अकेली औरबहुत बदसूरत हो चुकी काया पर भी छा चुकी होती है सुनहरी, सुर्ख़ राखतब राख से कोई नहीं पूछता कि वो कौन जात है•••?
लेकिन, लाश से पूछी जाती है उसकीजात, गोत्र, पूरे ख़ानदान के बारे मेंलेकिन, राख नहीं करती फ़र्क बिन कुछ जाने-समझेमिल जाती है मिट्टी में नये उत्सर्जन के लिए। जिसकी चाहे जो भी हो औकात-ओहदा कद-काठी जात-पातसबको बनना है एक दिन सिर्फ राखसूखी, भुरभुरी और सुनहरी राख
लेकिन, लाश से बनी राखजो बहा दी जाती है जीवन रेखा में, नदियों में नालों में, गूल-तालाबों में जो पानी को करती है गंदाजल स्रोत को अवरुद्ध उससे नहीं है मेरी सहमति।
काश!यह राख काम आतीखेतों को लहलहाने में बर्तन चमकाने में, चौका-चूल्हा दमकाने में •••यह निरर्थक राख हैइसका नहीं है कोई उपयोग
इसलिए मैं नहीं बनूंगा राखवो सुर्ख़, भुरभुरी और सुनहरी राख जो भले देखने में शानदार हो, लेकिन नहीं है बिल्कुल भी असरदार। मुझे दे देना किसी कसाई खाने में जानवरों के नहीं इंसानों के जहाँ मेरे शव को चीर-फाड़ कर तलाशी जा सके नयी ज़िन्दगी खोजी जा सके नयी उम्मीद देखी जा सके नयी सुबह की पहली किरण मुझे खुशी मिलेगीसिर्फ राख न बनकर कसाईखाने में टांगे जाने सेलाश होने पर भी ज़िंदा नज़र आने से।
-रूपेश कुमार सिंह