मास्साबः सिर्फ व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं ! (भाग-एक)

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मास्साबः सिर्फ व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं! 

– रूपेश कुमार सिंह

मास्टर प्रताप सिंह (स्कैच सर्वजीत के द्वारा)

1978 में मुन्ना (प्रताप सिंह) शादी के बाद जब पहली बार बरेली आये तो उनका कोई बड़ा ख़्वाब नहीं था। अमन -चैन की बेहतर जिन्दगी के वास्ते तलाश थी एक अदद नौकरी की। घर से मिले पांच रुपये और अंजान शहर……….. न खाने का ठिकाना और न रात में सिर छुपाने को छत। घर में कलह के चलते बाहर निकले थे, सो वापसी का कोई चांस था ही नहीं। पत्नी को ससुराल से अपने साथ ले जाने की हिदायतें………. ऐसे में 20 साल का नौजवान आखिर क्या कर सकता था? 
उस समय खुजली की एक रहस्यमयी बीमारी शहर में फैली हुई थी। लोग परेशान थे। मुन्ना को अपने श्वसुर विद्योत्तम चन्द्र वैद्य (जो कि एक प्रसिद्ध वैद्य थे) से कभी कोई आयुर्वेदिक नुस्खा सीखने को मिला था (शायद स्वयं या परिवार में किसी को हुई खुजली के इलाज के दौरान)। रोजगार का एक सुनहरा अवसर सामने देखा और तत्काल अपने पास मौजूद पांच रूपये से कुछ खाली शीशी, सुरमा और कुछ जड़ी-बूटी खरीदी। दवा तैयार की। दवा को शीशी में भरकर बसों में, सड़क पर, बरेली कचहरी के गेट पर बेचना शुरु किया। जो मिला खाया, जहां जगह मिली सो गये। दो-तीन दिन यह सिलसिला चलता रहा। गोरा रंग, गठीला शरीर, लम्बी कद-काठी और चेहरे पर तेज देखकर एक सज्जन वकील ने उन्हें रोका और पूछा ‘‘तुम कौन हो, कहां से आये हो, और यह काम क्यों कर रहे हो?’’ सारी आप-बीती बताने के बाद न जाने क्या सोच कर वकील साहब ने उनको उस दिन से ही अपने साथ मुंशी रख लिया। मेहनताना था- पाँच रूपये रोज का। पढ़ने-लिखने में रुचि और जानने-समझने की उत्कट इच्छा से उन्होंने 6 माह की मुंशीगिरी में ही देश-दुनिया, समाज व व्यवस्था को जानना-समझना शुरु कर दिया। बरेली की वह कचहरी कानूनी दांव-पेंच सीखने की प्राथमिक पाठशाला थी।

 इस बीच वह आर. एस. एस. के सम्पर्क में आ गये। बरेली से प्रकाशित आर. एस. एस. के पत्र में संपादन सहयोग करने लगे। देश की बदहाल स्थिति को और करीब से समझने लगे। तेवर तीखे होने लगे, गुस्सा व्यवस्था के प्रति बढ़ता गया। राष्ट्रीयता की भावना तीव्र होने लगी। जल्द ही आर. एस. एस. के संगठन विद्या भारती द्वारा संचालित शिशु मन्दिर में आचार्य की नौकरी भी मिल गयी। मुन्ना अब आचार्य जी हो गए थे। आचार्य बनने के बाद पत्नी गीता सिंह भी बरेली में उनके साथ ही आकर रहने लगीं। हौसला दुगना था और बेहतर समाज बनाने का सपना भी व्यापक हो चुका था। सुरमा और खुजली की दवाई बेचने से लेकर आचार्य तक की नौकरी उन्होंने महज 8-9 माह में तय की। समझ सकते हैं कि मास्साब अपने लक्ष्य के प्रति कितने दृढ़ संकल्प और निष्ठावान थे।

शिशु मन्दिर में आचार्य रहते उन्होंने बरेली में ही आईटीसी और ओटीसी (संघ शिक्षा वर्ग की दक्षता परीक्षा) की। यहीं से उनके आक्रामक, विद्रोही, संघर्षशील, आन्दोलनकारी, पत्रकार, चिन्तक, गुरूजी और मास्साब बनने का सफर शुरु हुआ। वो भी एक आरामदायक, बेहतर जिन्दगी चाहते थे परिवार के साथ। लेकिन हालात, भ्रष्ट व खोखली दमनकारी व्यवस्था ने उन्हें उद्देलित कर दिया। 1984 में प्रधानाचार्य बनकर गदरपुर उत्तराखण्ड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) आ गये। उस समय अवध मण्डल के प्रभारी व्यवस्थापक रामलाल जी (आज भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री) ने उन्हें तराई में विद्या भारती के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी सौंपी। उनका मानना था कि समाज का शिक्षित होना बहुत जरूरी है। पढ़ा-लिखा समाज ही आदर्श राष्ट्र की स्थापना कर सकता है। इसलिए उन्होंने लंगड़ाभोज, कालीनगर, मदनापुर, दिनेशपुर सहित लगभग एक दर्जन से ज्यादा जगह सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना स्थानीय लोगों के सहयोग से की। संसाधन के नाम पर कुछ भी नहीं। वाहन चलाना उन्हें आता नहीं था। साइकिल से ही उन्होंने पूरी तराई को नापा। मम्मी बताती हैं कि साइकिल से ही उन्होंने बरेली और मुरादाबाद का सफर कई बार तय किया। ट्रक में यात्रा करना तो उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा। वे कहते थे कि ट्रक में यात्रा करने से एक तो पैसे बचते हैं और दूसरा आम लोगों के बीच का नया अनुभव होता है।

संस्थागत काम के वे प्रवल समर्थक थे, इसलिए उन्होंने व्यक्ति की जगह संगठन को तरजीह दी। लोगों को जागरूक किया और संगठन को मजबूत करने पर बल दिया। यह बात गदरपुर सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थानीय कमेटी को बिल्कुल भी नहीं भायी। स्वयं सेवी होने के नाते मास्साब परोपकारी थे। जनता की सेवा करना वह अपना धर्म समझते थे। इसलिए उन्होंने कट्टरबाद और साम्प्रदायिक, जातिगत भेद-भाव का विरोध किया। मास्साब ही थे जो मुस्लिम समाज के बच्चों को भी सरस्वती शिशु मन्दिर में पढ़ाते थे। इसके अलावा बुक्सा व थारू जनजाति समाज को शिक्षा के लिए प्रेरित किया। बुक्सा समाज के लोगों को अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष करने को भी खड़ा किया।

मास्साब सर्व धर्म समभाव के पक्षधर थे, लेकिन स्थानीय कमेटी उनसे इन सारी बातों को लेकर नाखुश थी। 1989 में आंवला, बरेली के लिए मास्साब का तबादला किया गया। इससे पूर्व ही उन्होंने अपने मित्रों के सहयोग से 1986 में भारत समाजोत्थान समिति का गठन कर लिया था। समिति ने बरेली, मुरादाबाद और कुमाऊं मण्डल में काम शुरु किया। 1988 में ‘प्रेरणा-अंशु’ का मासिक प्रकाशन भी शुरु हुआ। अब आर. एस. एस. के लोगों को लगने लगा कि एक प्रधानाचार्य समानान्तर संगठन चलाने लगा है, इसलिए उन्हें गदरपुर से खदेड़ने की योजना बनायी गयी।

वास्तव में मास्साब बहुत दूरदर्शी थे। वे आने वाले समय को भांप लेते थे। आश्रित होना उन्होंने सीखा नहीं था। स्वाभिमान पर आंच आ जाए ऐसा उन्होंने कभी होने नहीं दिया। जिद्दी, निडर और स्पष्टता उनका प्रमुख गुण था। 1990 में दिनेशपुर में सात हजार पांच सौ रूपये में कुछ जगह ली और 25 बच्चों को लेकर तीन झोपड़ियों में स्कूल शुरु कर दिया। हम चार भाई, मम्मी एक झोपड़ी में रहते और दो में बच्चे पढ़ते। 1990 के बाद के संघर्ष को तमाम साथियों ने प्रेरणा-अंशु के मई 2018 के अंक में विस्तार से लिखा है। मैं उन्हें यहां दोहराना नहीं चाहता, पर हाँ, कुछ-कुछ बातें जरूर रखूंगा जो खुल कर सामने नहीं आयी हैं। 
1991-92 का दौर हम कभी नहीं भूल सकते। आज समाजोत्थान स्कूल के चारों ओर आवादी, मन्दिर-गुरूद्वारा और चहलकदमी है, तब बिल्कुल बीरान था, जंगल था। रात में सियार और कई जंगली जानवर झोपड़ी तक आ जाते थे। न सड़क थी, न बिजली। दूर-दूर तक कोई नहीं, बिल्कुल एकांत। दिन में स्कूल के बच्चे होते थे और रात में घोर संनाटा। रात काटने को दौड़ती थी।

रामजन्म भूमि आन्दोलन चरम पर था। मास्साब भूमिगत थे। पुलिस उनकी धरपकड़ के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने में लगी थी। मम्मी हम चारों को लेकर हर मोर्चे पर मास्साब का साथ दे रही थीं। मैं और बड़ा भाई वीरेश साइक्लोस्टइल मशीन से समय मिलते ही दिन में रामजन्म भूमि आन्दोलन के समर्थन में पर्चे छापते थे। संगठन के ठिकानों पर पर्चा पहुंचाना भी हमारी जिम्मेदारी थी। 1986-92 तक हमने आर. एस. एस. के बड़े-बड़े नेताओं (आज राष्ट्रीय स्तर पर हैं) को अपने घर पर सूखी रोटी और चटनी खाते हुए देखा था। संघ के एक नेता मजाक में कहते थे-‘‘संघी यार किसके खाये-पीये खिसके’’ हमारे हिस्से की रोटी भी कई बार मम्मी उन्हें दे देती थी। बदले में हमें राष्ट्रवाद के लिए कुछ भी कर गुजरने का संदेश मिलता था। खैर बड़ी तादात में संगठन के लोगों का घर पर टिकने, रहने का सिलसिला जो उस समय शुरु हुआ वो आज भी बदस्तूर जारी है। बस रुकने वाले लोग बदल चुके हैं।

मास्साब शुरु से ही धोती-कुर्ता या पाजामा-कुर्ता पहनते थे। 1992 की एक रात की बात है। झोपड़ी में मिट्टी के तेल की डिबिया धीमी गति से जल रही थी। बाहर सियार के हूआ-हूआ की आवाज दौड़ रही थी। मम्मी उन दिनों भी रात में कम ही सोती थीं। हम चारों जमीन पर बिछी चटाई पर क्रम से लेटे हुए थे। रात जगने और अनहोनी के लिए सजग रहने के लिए मैं और वीरेश दोनों हर रात मम्मी का साथ देने की कोशिश करते थे। लेकिन हर रोज नींद हमें परास्त कर ही देती थी। रवि और अनुज छोटे थे, इसलिए वो इन सारी बातों से अंजान थे। समय का तो ठीक से पता नहीं, लेकिन रात काफी चढ़ी हुई थी। मास्साब के लिए मम्मी ने झोपड़ी का गेट खोल दिया। गेट तो क्या वो बस एक आढ़ थी। लम्बी-लम्बी दाड़ी, पेंट-शर्ट, जूते पहने हमने मास्साब को पहले कभी नहीं देखा था। हल्की मूंछ ही रखते थे मास्साब। मम्मी ने सवाल किया ‘‘ये क्या हाल बना रखा है’’ ‘‘पुलिस से बचने के लिए।’’ मास्साब ने उत्तर दिया। इस वेश मे कोई जल्दी नहीं पहचान पाएगा। कुछ देर मास्साब हम लोगों के साथ रूके। शायद एक-दो रोटी भी खाई। फिर रात में ही निकल गये। इसके बाद मास्साब की जब वापसी हुई तो वह लम्बी दाड़ी के साथ कुर्ता पाजामा पहने हुए थे। मम्मी ने कहा, ‘‘अब तो दाड़ी कटा लो’’ 
‘‘दाड़ी तो तब कटेगी जब अयोध्या में राम मन्दिर बनेगा’’ मास्साब ने कहा।

उसके बाद दाड़ी ही मास्साब की पहचान बन गयी। लोग उन्हें ‘‘दाड़ी वाले गुरूजी’’ के नाम से पुकारते लगे। इस तरह आचार्य जी, गुरूजी में तब्दील हो गये। 
दिलचस्प बात यह है कि जिस दाड़ी को रखकर उन्होंने 1991-92 में पुलिस को चकमा दिया। उसी दाड़ी को काट कर पेंट-शर्ट, आँखों में काला चश्मा पहनकर उन्होंने 2005 में माओवाद के दमन से बचने के लिए रूप धारण किया। 2005 में मास्साब को तमाम साथियों ने बिना दाड़ी के सूट-बूट में देखा। उनका नया लुक देखकर हम लोग बहुत हंसते थे। समझा जा सकता है कि मास्साब संघर्ष में हर रणनीति को अपनाते थे। वह किसी बात के लिए कट्टरपंथी नहीं थे।

(भाग-दो और भाग-तीन यहाँ पढिए)

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