क्या वास्तव में इससे बुरा कुछ हो सकता है?
-वीरेश कुमार सिंह
‘हमारे मोडो को इत्तो मारो है इत्तो मारो है, जे खटिया पे पड़ो है। खून बह रहो है। बा हिल-डुल न पा रहो।‘
‘अरे तो सांस तो चल रही बा की? मरो तो न अभी तक?‘
‘जे मर जाए तभई आएं?…….. जनता की रच्छा की नौकरी है तुमाई। चिता पे रोटी सेंकने की ना है।‘
‘भक्क साले पागल, हट्ट साले‘
जिन्होंने मरहूम इरफान खान अभिनीत फिल्म ‘पान सिंह तोमर‘ देखी होगी उनके जेहन में एक पुलिस अधिकारी और एक फरियादी के बीच के ये संवाद आज भी ताजा होंगे। ये केवल किसी फिल्म के डायलाॅग मात्र नहीं हैं बल्कि लोकतंत्र के मुलम्मे में लिपटे आजाद भारत की कड़वी सच्चाई को बयां करती तस्वीर है, जहाँ नेता-अफसर-पूँजीपति का अघोषित लेकिन दुर्जेय गठबन्धन आम जनता का शोषण कर रहा है। कोरोना काल में यह गठबन्धन अपने निकृष्टतम रूप में सबके सामने है और मजे की बात यह है कि इसने अपने लिए जनता के बीच से ही सिपहसालार भी बना लिए हैं। ऐसे लोगों की बाकायदा फौज खड़ी कर दी गई है जो सरकार के हर सही-गलत को तर्कों-कुतर्कों, मनगढ़ंत आंकड़ों के बल पर सही साबित करने को तैयार है। यदि कोई हथियार न हो तो पूर्ववर्ती सरकारों के तथाकथित कुकर्मों को ही निर्लज्जतापूर्वक अपनी ढ़ाल बना लिया जा रहा है। एक तर्क बड़ी तेजी से हर असफलता की जवाबदेही से बचाव करने का ब्रह्मास्त्र बना दिया गया है- ‘यदि मोदीजी नहीं होते तो इससे भी बुरा होता।‘ यानी हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि हम काल्पनिक रूप से अपेक्षाकृत और बुरे हालात से बच गए!
अब जबकि पूरे देश में लाॅकडाउन के दो महीने से भी ज्यादा हो चुके हैं और यह जगजाहिर हो चुका है कि दुनिया भर में सबसे सख्त लाॅकडाउन लागू करने के बावजूद सरकार स्थिति को संभाल पाने और इस आयातित महामारी के संक्रमण को रोक पाने में न सिर्फ पूरी तरह से विफल रही है बल्कि अनियोजित तरीके से जल्दबाजी में लिए गए लाॅकडाउन के फैसले ने देश के आर्थिक और सामाजिक ढ़ांचे को पूरी तरह से चैपट कर दिया है, तब जोर-शोर से यह तर्क प्रसारित किया जाने लगा है कि यदि ऐसा नहीं किया होता तो और बुरे परिणाम सामने आते। क्या वास्तव में इससे बुरे परिणाम आ सकते थे?
24 मार्च को जब लाॅकडाउन के प्रथम चरण की घोषणा की गई थी उस समय देश भर में कोरोना संक्रमण के लगभग पाँच सौ मामले थे जो कि एक सीमित क्षेत्र में ही थे। आज चैथे चरण के लाॅकडाउन के बाद स्थिति यह है कि पूरे देश में यह संक्रमण फैल चुका है और पीड़ितों की संख्या डेढ़ लाख के करीब हो चुकी है। चार हजार से भी ज्यादा जानें प्रत्यक्ष रूप से कोरोना निगल चुका है और अप्रत्यक्ष रूप से इस आपदा से उत्पन्न स्थिति से मरने वालों का कोई आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन वह भी हजारों में ही होगा। विशेषज्ञों की मानें तो अभी स्थिति और भी गंभीर होगी क्योंकि प्रवासी श्रमिक जो अपने गृह राज्यों में वापसी कर रहे हैं, वे इस संक्रमण को और फैला सकते हैं। राज्य सरकारों के पास न तो इनके क्वारन्टाइन के लिए समुचित व्यवस्थाएं हैं और न ही जाँच की। अधिकांश क्वारन्टाइन सेंटर्स में शौचालय, बिजली,पानी,सेनेटाइजर,साबुन,बाल्टी,मच्छरों व कीड़े-मकौडों से बचाव के समुचित प्रबंध, भोजन आदि की उचित व्यवस्था तक नहीं है। प्रवासी मजदूरों को रामभरोसे छोड़ दिया जा रहा है। पीपीई किट, सुरक्षा उपकरण, दवाइयों की कमी पूरी करने के बजाय पुष्पवर्षा की जा रही है। दो से तीन गुना दाम पर खरीदे जा रहे जीवन रक्षक उपकरण खिलौने साबित हो रहे हैं और चीख-चीख कर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि इनकी खरीद में भारी अनियमितताएं बरती गई हैं। ये अनियमितताएं क्यों बरती जा रही हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है। अव्यवस्थाओं के खिलाफ मुँह खोलने वाले डाॅक्टर्स के साथ दुव्र्यवहार किया जा रहा है, उन्हें पागल करार दिया जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में वर्तमान में प्रतिदिन लगभग 20 लाख जाँच किए जाने की आवश्यकता है जबकि अभी बमुश्किल 1 लाख जाँच तक ही सरकार करा पा रही है। इस प्रकार संक्रमण की वास्तविक तस्वीर तो जनता के सामने आ ही नहीं पा रही है। सरकार अमेरिका और इटली से अपनी तुलना कर स्वयं को बेहतर साबित करने पर तुली है जबकि हकीकत यह है कि अमेरिका या यूरोप से तुलना वैसी ही है जैसे किसी काॅन्वेंट के विद्यार्थी की तुलना सरकारी पाठशाला के छात्र से करना, यानी पूरी तरह से बेमेल। हमें तुलना ही करनी है तो अपने पड़ोसी श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि से करें तो हम पाएंगे कि इस महामारी को नियंत्रित कर पाने में हम अपने पडोसियों से भी फिसड्डी साबित हुए हैं। कोरोना संक्रमण से मृत्य की दर भी हमारे यहाँ 3 प्रतिशत से अधिक बनी हुई है जो पड़ोसी देशों से कहीं ज्यादा है। क्या इससे भी बुरा होने की कल्पना की जा सकती है? यदि हाँ, तो निश्चित रूप से इसकी जवाबदेही भी तय की जानी जरूरी है।
उद्योग धन्धे लगभग बंद हैं। छोटे व मंझोले उद्योगपतियों की हालत ऐसी नहीं है कि वे पुनः ऐसे माहौल में उत्पादन की प्रक्रिया में शामिल हों जबकि घरेलू बाजार जो पहले से ही मंदी की चपेट में था और लाॅकडाउन के बाद तो प्रभावी माँग के गम्भीर संकट से जूझ रहा है। आर्थिक पैकेज के नाम पर ज्यादातर कर्ज लेने-देने के खेल से भी उनको प्रोत्साहन मिलना सम्भव नहीं है। और सबसे बड़ी बात कि जिस बीस लाख करोड़ के पैकेज की बात की जा रही है वह कब तक और किस तरह से अमल में आएगा यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है। दैनिक वेतनभोगी, असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों, फेरी लगाने वालों, पर्यटन से जुड़े श्रमिकों के लिए कुछ भी किए जाने के संकेत नहीं मिल रहे हैं जबकि इनकी संख्या करोड़ों में है और यह सबसे ज्यादा प्रभावित भी हुए हैं। तमाम आर्थिक संगठन इस बात की चेतावनी दे रहे हैं कि भारत में विकास दर ऋणात्मक हो सकती है। 5 ट्रिलियन इकाॅनाॅमी की ओर देश को ले जाने की कोशिशों के बीच विकास दर का ऋणात्मक होने की आशंका से बुरा भी क्या कुछ हो सकता है? यदि हाँ तो इसके लिए भी जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए।
लोग इस समय जीविका के अभूतपूर्व संकट से जूझ रहे हैं। रोजगार समाप्त हो चुका है। आगे भी लम्बे समय तक रोजगार मिलने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है। ऐसे में भूख के सवाल कैसे हल किए जाएंगे यह चिंता का विषय है। सरकार के पास पाँच सौ रुपए महीने की सहायता राशि और कुछ किलो दाल,गेहूं और चावल के अतिरिक्त कोई समाधान नहंी है। यह सुविधा भी सभी के लिए उपलब्ध नहीं है। बहुत से लोग हैं जो राशन कार्ड से वंचित हैं, जिनमें दलित आदिवासी व घुमंतू समुदायों के लोगों से लेकर फुटपाथ पर रहने वाले लोग शामिल हैं। इनका कोई पुरसाँहाल नहीं है। जिन्हें ये सुविधाएं मिल भी रही हैं वे कैसे गुजारा कर पा रहे होंगे सोचा जा सकता है क्योंकि तेल,साबुन,नमक,मिर्च-मसाले,दवा,दूध,सब्जी जैसी तमाम जरूरतें हैं जो उक्त सहायता से हल होने वाली नहीं हैं। ऊपर से इसमें भी लगातार धांधली की शिकायतें मिल रही हैं।
एक रिपोर्ट के मुताबिक मनरेगा में पिछले दिनों में रिकाॅर्ड रजिस्ट्रेशन हुए हैं। जाहिर सी बात है कि ये वही लोग हैं जो शहरों से अपना सब कुछ गंवा कर वापस आए हैं। निश्चित तौर पर सरकार के पास इतनी व्यवस्था नहीं होगी कि इनमें से आधों को भी काम उपलब्ध करा सके। कई जगहों से भूख से मरने या घास और चूहे खाकर जिन्दा रहने की जद्दोजहद जारी रहने की खबरें भी आनी शुरू हो चुकी हैं। एक वीडियो पिछले दिनों वायरल हुआ जिसमें एक व्यक्ति(हो सकता है कि वह विक्षिप्त रहा हो) सड़क पर दुर्घटना में मरे कुत्ते का मांस खा कर अपनी भूख मिटा रहा है। अब बताइए क्या इससे भी बुरा कुछ हो सकता है? यदि हो सकता है तो उस बुरे का जिम्मेदार कौन है?
यूनिसेफ ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए चेतावनी दी है कि लाॅकडाउन के चलते दक्षिण एशिया के देशों विशेषकर भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में बच्चों को जीवनरक्षक अनिवार्य टीके नहीं लगाए जा सके हैं जिससे इन देशों के 45 लाख से ज्यादा बच्चों के स्वास्थ्य पर संकट खड़ा हो सकता है। महिलाओं को सुरक्षित प्रसव की सुविधाएं तक नहंी मिल पा रही हैं। सड़कों पर प्रसव के कई समाचार पिछले दिनों में सामने आए हैं।
कोढ़ में खाज के रूप में अधिकारियों व नेताओं के शर्मनाक बयान व हरकतें सामने आ रहे हैं। किसी को प्रवासियों की समस्याएं मजाक लग रही हैं तो किसी को मजदूरों से बात करना फालतू का काम नजर आ रहा है। कोई पलायन को पर्यटन जैसा आनन्ददायक बता रहा है तो कोई चटखारे ले-लेकर अपने बचपन की यादें ताजा कर रहा है।
जनप्रतिनिधि आइसोलेशन में ही नहीं बल्कि हाइबरनेशन में चले गए से लगते हैं। हममें से किसी ने शायद ही अपने सांसद, विधायक या अन्य जनप्रतिनिधियों को सड़क पर जनता के साथ उसके दुःख-दर्द को बाँटते हुए या कुछ राहत कार्य करते हुए देखा होगा। हाँ, घर पर बैठ कर टीवी सीरियल का लुत्फ लेते हुए ये जरूर दिखाई दिए हैं। भारत माता संकट में है और उसकी जय-जयकार करने वाले मौज उड़ा रहे हैं। चुनावों के समय मिलने वाले थोथे आश्वासन भी जनता को नहीं मिल रहे। हाँ ताली-थाली-शंख-घंटा-घड़ियाल बजाने के बेतुके उपाय या बीमारी का धर्म से नाता जोड़ने की पुरजोर कोशिशें की जा रही हैं। चारण-भाट चालिसाएं लिख और गा रहे हैं। पक्ष-विपक्ष के बीच चूहा-बिल्ली का खेल अमानवीयताओं की नई मिसालें कायम कर रहा है।
श्रम कानूनों, निवेश व विदेशी व्यापार से सम्बन्धित नियमों में बदलाव से श्रमिकों व संसाधनों के शोषण का खुला खेल खेलने की तैयारी हो चुकी है। क्या लोकतंत्र और तंत्र की बदहाली का इससे भी बड़ा कोई प्रमाण मिल सकता है?
हमारी पीढ़ी ने तुगलक को इतिहास में ही पढ़ा था जिसने अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते जनता को हमेशा परेशानी में डाला। आज फिर इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है और हम मानव सभ्यता के सबसे बुरे दौर से दो-चार हैं। इसके बाद भी यदि यह कहा जाए कि इससे भी बुरा हो सकता था तो मुझे लगता है कि इससे बुरा सिर्फ तभी हो सकता है जब मौत आ जाए, हालांकि वह भी बदहाल लोगों के लिए तो सुकून देने वाली ही होगी।
वीरेश कुमार सिंहसंपादक‘प्रेरणा-अंशु‘राष्ट्रीय मासिक पत्रिका