दास्तान-ए-दिनेशपुर

Share this post on:

-रूपेश कुमार सिंह स्व0 पुलिन विश्वास जैसे सामाजिक कार्यकर्ता यहां हुए, जिन्होंने 1956 में बंगाली शरणार्थी समस्या के सही ढंग से समाधान न होने तक कमीज न पहनने का संकल्प लिया और जीवन भर सिर्फ एक धोती पहनकर ही संघर्ष करते रहे।

   जनपद ऊधम सिंह नगर के मुख्यालय रूद्रपुर से महज चौदह किलोमीटर दूर है दिनेशपुर। वैसे तो दिनेशपुर एक छोटा सा, तेजी से उभरता हुआ कस्बा है, लेकिन अपनी सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, खेल और साहित्यिक जागरूकता के लिए दूर-दूर तक जाना जाता है। नवरात्र में विशाल दुर्गा पूजा, हरिचांद-गुरूचांद मंदिर में मतुआ सम्प्रदाय का महा वारूणी स्नान, निकटवर्ती गांव रामवाग में पुरातन शिव मंदिर पर शिवरात्रि में आयोजित मेला, गुरूद्वारे की वैशाखी, बालाजी मंदिर की भव्यता के अलावा दिनेशपुर का रोज लगने वाला मछली और सब्जी बाजार, बड़े-बड़े तालाब, बांस के फर्नीचर का कारोबार, बंगाली हट का निर्माण, काष्ट शिल्प और मिट्टी की कलाकारी, गायन व लोगों की श्रम शक्ति का डंका है। अतीत में कई प्रखर आन्दोलन हुए हैं, (जैसे महतोषमोड़ काण्ड, ढीमरी ब्लाक का आन्दोलन, बंगाली समाज का आन्दोलन आदि) जिनकी गूंज बीबीसी लंदन तक सुनी गयी। स्व0 पुलिन विश्वास जैसे सामाजिक कार्यकर्ता यहां हुए, जिन्होंने 1956 में बंगाली शरणार्थी समस्या के सही ढंग से समाधान न होने तक कमीज न पहनने का संकल्प लिया और जीवन भर सिर्फ एक धोती पहनकर ही संघर्ष करते रहे। स्व0 मास्टर प्रताप सिंह ने 32 साल पहले नगर से साहित्यिक मासिक पत्रिका प्रेरणा-अंशु का प्रकाशन शुरू किया, जो आज भी जारी है। यहां के नौजवानों ने सीमा पर अपने प्राणों की कुर्बानी देकर राष्ट्र हित निभाया है, तो खेल, संगीत, रंगमंच और प्रशासनिक सेवा में भी योग दिया है। स्व0 मास्टर प्रताप सिंह ने 32 साल पहले नगर से साहित्यिक मासिक पत्रिका प्रेरणा-अंशु का प्रकाशन शुरू किया, जो आज भी जारी है। 

बुक्सा जनजाति और वन-गुर्जरों का था निवास

आजादी से पूर्व दिनेशपुर और आस-पास के इलाके में घना जंगल था। यहां बुक्सा जनजाति के लोग एवं कम संख्या में वन-गुर्जर निवास करते थे। 1947 में देश का विभाजन हुआ। विभाजन के परिणाम स्वरूप पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगला देश) के खुलना, बारिशाल, जैशोर, मैमनसिंह, नोआखाली, राजशाही क्षेत्रों से हजारों लोग यहां पहुंचे, जिन्हें भारत सरकार ने पुनर्वास विभाग द्वारा दिनेशपुर सहित आस-पास के 36 गांवों में बसाया था। इस बसासत को 36 कालोनी कहा जाता था, जो अब बढ़कर 50 से भी ज्यादा हो चुकी हैं। पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापितों का आना लगातार जारी था। 1958 तक आते-आते पुनर्वास की समस्या जटिल होने लगी। अब सभी को जमीन व आवास देना मुश्किल हो गया। जिन लोगों को जमीन नहीं मिली, वे भूमिहीन खेत मजदूरों में तब्दील हो गये तथा तराई के विभिन्न फार्मों में मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट पालने लगे। जिन लोगों को जमीन मिली थी, उनके लिए भी जीवन की राह आसान न थी। एक तो वन भूमि को उपजाऊ बनाना अत्यधिक श्रम-साध्य व खर्चीला था, दूसरे यहां की जलवायु बंग-भाषियों के लिए अनुकूल नहीं थी। कई लोगों को विपरीत परिस्थितियों के कारण अपनी जमीन बेचनी पड़ी। सरकार की उदासीनता ने भी यहां के बंगाली परिवारों को कमजोर किया। इस सबके बावजूद बंगाली समाज ने अपनी संस्कृति, अपनी भाषा और अपने रीति-रिवाजों को कमोवेश अक्षुण्ण रखा है। दिनेशपुर में काफी समय बाद कारोबार के लिए पंजाबी और बनिया समाज के लोगों ने प्रवेश किया। विस्थापन से प्रभावित सिख समाज जमीन की तलाश में इस क्षेत्र में पहुंचे। 

मेहनतकश लोगों से पटा हुआ है दिनेशपुर

1971 में बंगला देश की स्थापना के समय भी एक बड़ा जनसैलाव भारत आया। काफी लोग दिनेशपुर में भी आये। इस दौरान आये लोगों को भारत सरकार ने न तो विधिवत बसाया और न ही उन्हें बंगला देश भेजने का काम किया। लिहाजा बड़ी तादात में लोग सड़क किनारे, सरकारी जमीन पर, पुराने बसे लोगों से कुछ जमीन लेकर बस गये। बीड़ी बनाने और रजाई सिलने का काम नगर में आज भी प्रमुख्ता से महिलाएं करती हैं। मछली का जाल, चटाई, डलिया, बांस का फर्नीचर बनाना भी दिनेशपुर की विशेषता है। बंगाली रसगुल्ले और सिंदूर बहुत फेमस है। नगर के मूर्तिकार और शिल्पकार देशभर में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। बंगाली साड़ी लेने के लिए दूर-दराज से लोग यहां आते हैं। मेहनतकश लोगों से पटा हुआ है दिनेशपुर। 

कौमी एकता का गुलदस्ता है दिनेशपुर 

धीरे-धीरे यहां पंजाबी, सिख, देशी, पूर्वांचली, पर्वतीय समाज के लोग भी बहुतायत में बस चुके हैं। दिनेशपुर को कौमी एकता का गुलदस्ता भी कहा जाता है। वर्तमान में दिनेशपुर एक बेहतरीन कस्बा है। यहां महानगरों की तरह भीड़-भाड़, कोलाहल, क्राइम और प्रदूषण नहीं है। जबकि बिजली, पेयजल, शिक्षा, चिकित्सा, यातायात आदि मूलभूत सुविधाएं नागरिकों को उपलब्ध हैं। जिला मुख्यालय के निकट स्थित होने के कारण जनता का उच्च अधिकारियों से सतत संपर्क बना रहता है। तथा जनसस्याओं का समाधान अपेक्षाकृत अधिक सरलता से हो जाता है। तराई के अन्य स्थानों की तरह यहां हिंसक व उग्र गुट नहीं हैं। इसलिए सदैव शान्ति का वातावरण बना रहता है। बालक-बालिकाओं के लिए अलग-अलग राजकीय इंटर कालेज के अलावा कई प्राइवेट इंटर कालेज हैं। सीबीएसई बोर्ड के स्कूल भी हैं। शिक्षा का स्तर लगातर सुधर रहा है। औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान प्रति वर्ष सैकड़ों युवक-युवतियों को व्यवसायिक प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है। सिडकुल के कारण कुशल कामगारों की मांग लगातार बढ़ रही है। स्वच्छ, शान्त और सस्ता नगर होने के कारण एक बार जो यहां आ जाता है, वह यहीं का होकर रह जाता है। कभी कभार यहां जातिय विवाद अवश्य हो जाते हैं, किन्तु उन्हें सदैव आपसी सू़झबूझ से सुलझा लिया जाता है। साम्प्रदायिक कटुता यहां नाममात्र को भी नहीं है। इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय के लोग यहां पूर्ण स्वतंत्रता एवं स्वाभिमान के साथ रहते हैं। कुल मिलाकर दिनेशपुर का वर्तमान परिदृश्य सुखद व आशापूर्ण है। 

जो चिन्ताएं नगर के लिए हैं गंभीर चुनौती 

दिनेशपुर एक नया विकसित होता हुआ नगर है। सिडकुल के कारण इसकी आबादी और भी तेजी से बढ़ रही है, जिस कारण यातायात, शिक्षा, चिकत्सा आदि व्यवस्थाओं को और अधिक चुस्त-दुरूस्त करने की आवश्यकता होगी। व्यापक आबादी को देखते हुए एक डिग्री कालेज की स्थापना, चिकित्सालय का उच्चीकरण व रोडबेज बस का संचालन, मुख्य मार्ग का चौड़ीकरण आवश्यक है। साथ ही एक बड़े प्ले ग्राउंड, पार्क और आवासीय परिसरों की जरूरत है। आने वाले समय में कुछ चिन्ताएं भी उत्पन्न होना लाजिम है। यह चिन्ताएं नगर के लिए गंभीर चुनौती हैं। जिन पर अभी से व्यापक विचार मंथन होना चाहिए। जैसे अपराध, टूटते सामाजिक संबंध, समाज में फैलती विषमताएं, नशे का बढ़ता चलन, शिक्षा का गिरता स्तिर, नैतिक मूल्य में गिरावट, बालिका शिक्षा, छोटी उम्र में बालिकाओं की शादी आदि आदि। 

यह जरूरी है कि दिनेशपुर के सुन्दर भविष्य के लिए आज के नागरकि मिलजुल का ठोस प्रयास करें, ताकि दिनेशपुर राज्य का सबसे विकसित, संमृद्ध एवं खुशहाल कस्बा बना सकें। 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व रंगकर्मी हैं। 09412946162) 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *