जरूरी है एक मुकम्मल लड़ाई भाजपा-कांग्रेस के खिलाफ

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-रूपेश कुमार सिंह

क्षेत्रीय समस्याओं पर राष्ट्रीय दलों का रुख हमेशा उदासीन ही रहा

उत्तराखण्ड से भाजपा और कांग्रेस को खदेड़े बगैर खुशहाल और विकसित राज्य का निर्माण असंभव है। इसके लिए जरूरी है एक मुकम्मल लड़ाई भाजपा-कांग्रेस के खिलाफ। इन राष्ट्रीय दलों के राज्य की सत्ता में रहते बेहतरी की उम्मीद करना गलतफहमी है। मेरी बात हास्यास्पद लग सकती है, लेकिन 18 साल का सफर भाजपा व कांग्रेस के कारनामों, नीति और नीयत को समझने के लिए काफी है। राज्य बदहाल है, जनता तस्त्र है। संसाधनों की लूट चरम पर है। माफिया, अफसर और नेताओं की मिली भगत उत्तराखण्ड को लगातार बदरंग करने में लगी है। चारों तरफ हताशा, निराशा और अव्यवस्था का बोलबाला है। ऐसे में हमें सोचना ही होगा, आखिर कब तक हम भाजपा-कांग्रेस के पैरों की फुटबाल बने रहेंगे? दोनों दलों के बीच बारी-बारी से सत्ता का स्थानांतरण कब तक होता रहेगा? क्यों नहीं हम क्षेत्रीय विकल्प को मौका दे रहे हैं? 18 साल में हमने क्या खोया और क्या पाया, इसका मूल्यांकन हम कब करेंगे? क्षेत्रीय समस्याओं पर राष्ट्रीय दलों का रुख हमेशा उदासीन ही रहा है, इस बात को हम कब समझेंगे? इसके अलावा तमाम सवाल हैं, जिन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

क्षेत्रीय अस्मिता, अस्तित्व और पहचान को बचा पाना बड़ी चुनौती

केन्द्र में मौजूद मोदी सरकार तो देश के संसदीय ढांचे को ध्वस्त करने पर तुली हुई है। जब देश का प्रधानमंत्री खुले तौर पर राज्य को चेतावनी देता है, ‘‘विकास चाहिए तो डबल इंजन की सरकार बनाओ। केन्द्र की सरकार यदि प्रदेश में नहीं बनी तो तुम पिछड़ जाओगे। और फिर केन्द्र की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।’’ केरल में पिछले दिनों आयी भीषण बाढ़ से हुए नुकसान से उभरने के लिए केन्द्र की मदद और दोहरा व्यवहार यह समझने के लिए काफी है कि केन्द्र की भाजपा सरकार का बरताव राज्यों के प्रति कैसा है। जिन राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है, उन राज्यों की घोर उपेक्षा हो रही है। तब क्षेत्रीय अस्मिता, अस्तित्व और पहचान को बचा पाना बड़ी चुनौती है। उत्तराखण्ड जैसे छोटे हिमालयी राज्यों का विकास राष्ट्रीय पार्टियों के अधीन रहते बिल्कुल भी संभव नहीं है।

क्षेत्रीय राजनीतिक पतन के दुष्चक्र के पीछे भाजपा व कांग्रेस ही

कांग्रेस और भाजपा कभी उत्तराखण्ड पृथक राज्य की समर्थक नहीं रहीं। राज्य आन्दोलन के दौरान भी इन पार्टियों के नेताओं की भूमिका राज्य विरोधी ही थी। यह बात अलग है कि गठन के बाद वही नेता सत्तासीन हुए जिन्होंने उत्तराखण्ड की मुखालफत की। भाजपा और कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति ने उत्तराखण्ड की राजनीति में क्षेत्रीय दलों और वैकल्पिक राजनीति को हाशिये पर धकेल दिया। हालांकि क्षेत्रीय राजनीति के पतन के और भी बहुत से कारण हैं, लेकिन सारे दुष्चक्र के पीछे भाजपा व कांग्रेस ही जिम्मेदार हैं। किस तरह से उत्तराखण्ड की जनता, संघर्षशील ताकतें, आन्दोलनकारी भाजपा-कांग्रेस के प्रलोभन में फंस कर राज्य की लूट और बर्बादी में शामिल हो गये, इसे एक किस्से से समझ सकते हैं-
शेष अगले भाग में…

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