कोरोना काल में चिन्तन : श्लील बनाम अश्लील।

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सरकारी अश्लीलता पर बात कब होगी जनाब?

-वीरेश कुमार सिंह
औरेया के सड़क हादसे पर एक मित्र ने फेसबुक पर पोस्ट डाली जिस पर कमेण्ट करते हुए मैंने (हालांकि मैं कभी ऐसा नहीं करता हूँ या ये कहूँ कि उससे पहले तक कभी नहंी किया था) एक सामान्य रूप से प्रचलित अपशब्द का इस्तेमाल कर दिया। मित्र आभासी दुनिया के साथ-साथ वास्तविक दुनिया में भी मेरे अच्छे जानने वाले और शुभचिन्तक हैं तो उन्होंने कमेण्ट पढ़ने के बाद मुझे फोन किया और सलाह दी कि मुझे ऐसी गलतियों से बचना चाहिए। इससे सामाजिक छवि को नुकसान पहुँचता है ,और आप भी उसी अश्लीलता के वाहक बन जाते हैं जो असामाजिक तत्व समाज में फैला रहे हैं। उनकी बात सुनकर मुझे पाश की एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आ गईं जिसमें वह सबसे खतरनाक को परिभाषित करते हैं। आज यदि पाश होते तो वह सबसे खतरनाक के साथ सबसे अश्लील चीजों की भी व्याख्या जरूर करते। वह उस चाँद को सबसे खतरनाक ही नहीं सबसे अश्लील भी बताते जो किसी की मौत के बाद उसके आँगन में उतरता है और किसी की आँख में नहीं गड़ता है। आखिर अश्लील क्या है? क्या कभी समाज के श्लील और अश्लील चीजों पर बात नहीं की जानी चाहिए? आइए मैं बताता हूँ कि अश्लील क्या है।
जब देश में जनवरी के महीने में कोरोना का पहला मामला पकड़ में आया और इस आयातित बीमारी के बारे में तमाम चिकित्सा विशेषज्ञों ने चेतावनी दी और तत्काल प्रभावी कदम उठाए जाने की बात कही तो उसे नजरअंदाज करके तथाकथित तू-तड़ाक वाले मित्रतापूर्ण सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के लिए ‘नमस्ते ट्रंप‘ जैसे आयोजन कर विदेशियों का जमघट लगाना और अरबों रुपए की बर्बादी करना क्या अश्लील था। वह भी तब जबकि यह सारी कवायद ट्रंप को चुनावी लाभ पहुंचाने के लिए की जा रही थी।
देश में लगातार संक्रमण के मामले सामने आने के बावजूद जब केन्द्र की सत्ता में बैठे लोग उस ओर ध्यान देने के बजाय मध्य प्रदेश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को गिराने और लोकतंत्र की हत्या में लगे थे वह क्या अश्लीलता थी?
विदेशों में फंसे अमीरों को विशेष प्रबंधों के साथ हवाईजहाज से लेकर आना और फिर बिना किसी पूर्व योजना के तानाशाहीपूर्ण तरीके से पूरे देश की तालाबन्दी करके गरीब-मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ देना भी तो अश्लीलता ही है।
परदेश में फंसे मजदूरों का पैदल अपने गाँव के लिए पलायन करने पर खाकी वर्दी द्वारा उन पर ढाए गए जुल्मों की दास्तां क्या आप इतिहास में गौरवगाथा के रूप में दर्ज कर पाएंगे? सैकड़ों मील भूखे-प्यासे, सर्दी-गर्मी-बारिश की मार झेलते आगे बढ़ते थक कर चूर हुए मजदूरों की पीठ पर पडे़ पुलिस की लाठी के निशान हमारे दौर की सबसे बड़ी निर्लज्जता की तस्वीरें हैं। जलावनी लकड़ी बीन कर लाती महिलाओं पर पुरूष पुलिस कर्मी द्वारा फब्तियां कसना और उनसे उठक-बैठक करवाना, सर पर सामान की गठरी और कमर से दुधमँुहे बच्चे को लगाए महिला को जब सरेआम पुलिस की लाठियां पीटती हों और वह निढ़ाल होकर अपने आप को उनके हवाले कर देती हो, मानो कहना चाहती हो कि लो तोड़ दो एक-एक हड्डी, बहा दो खून का एक-एक कतरा ताकि इस जिल्लत भरी जिन्दगी से मिल सके मुक्ति और मिल सके सुकून तब निश्चय ही वह इस सभ्य समाज पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह होती है।
गुड्डे-गुडियों से खेलने की उम्र में जब आठ से दस साल के बच्चे बारी-बारी से अपनी छोटी बहन को अपनी पीठ पर लाद कर चिलचिलाती धूप में पिघलते कोलतार की सड़कों पर घिसट रहे होते हैं और बैलगाड़ी का जुआ एक बालक अपने नाजुक कन्धों पर ढ़ो रहा होता है वह होती है अश्लीलता।
जब एक देश-एक विधान की बात करने वाले विदेशों से प्रवासियों को इज्जत के साथ हवाईजहाज मे बैठाकर लाते हैं लेकिन भारत निर्माण के असली योद्धाओं को सडकों और रेल की पटरी तक पर चलने से रोक देते हैं तब वह होती है अश्लीलता। जब देश के नागरिकों का खून रेल की पटरियों पर, सड़कों पर और पगडंडियों पर बह रहा होता है और उसके लिए जिम्मेदार लोग उस बहते खून की गलतियों का पोस्टमार्टम कर रहे होते हैं, वह होती है अश्लीलता।
महामारी के नाम पर जब कर्मचारियों से अनिवार्य वेतन कटौती की जाती है, उनके भत्तों पर रोक लगाई जाती है लेकिन उसी समय माननीयों के वेतन और भत्ते बढा़ने के आदेश पारित होते हैं। देश में लाख़ों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ रहा होता है बावजूद इसके भुखमरी की स्थितियां पैदा होती हैं, लोग कूड़े के ढ़ेर से बीन कर खाना ढूंढते हों या घास और चूहे खाकर पेट भर रहे हों तब यह होती है अश्लीलता।
जरा याद कीजिए उन तस्वीरों को जिनमें चार साल के बेटे की लाश को सीने से चिपटाए एक बाप नंगे पैर बेतहाशा भागा चला जा रहा हो और चाह कर भी इस डर से रो तक न पा रहा हो कि कहीं पुलिस न पकड़ ले। चार माह की बच्ची पैदल यात्रा के दौरान मारी गई हो और उसके माँ-बाप उसके खाली झूले को सड़क पर घसीट कर ले जा रहे हों। और यह सब देख कर भी हुक्मरानों का कलेजा चाक न होता हो तो इसे अश्लीलता नहीं तो और क्या कहा जाएगा?
मई की चिलचिलाती दोपहर में पैदल चल कर थके हुए चार साल के बच्चे को माँ जब सूटकेस पर पेट के बल लिटाकर आगे बढ़ रही होती है और उस दृश्य पर जिले का सबसे बड़ा अफसर यह कहता है कि यह एक मजेदार अनुभव है, उसने भी बचपन में ऐसा कई बार किया है तब बचपन के शौक और पलायन की मजबूरी में अंतर न कर पाने वाली वे बेशर्म आँखें भी मुझे तो अश्लील और बेहया लगती हैं।
जब राहत पैकेज के नाम पर लोगों को आत्मनिर्भर बनने, स्वदेशी अपनाने के नारे बांटे जाते हों, देशी-विदेशी पूंजीपति को इस अवसर का लाभ उठाने के लिए आहवान किया जाता हो, मजदूरों को घर तक जाने के लिए 500 रुपए का टिकट तक मुहैया न करा पाने वाली सरकारें बड़े-बड़े पैकेज की घोषणाएं करती हों जिनको समझाने के लिए भी धारावाहिक चलाने पड़ते हों तो यह भी अश्लीलता नजर आती है।
जब समाज में चारों ओर इस तरह की अश्लीलताएं व्याप्त हों तो हमारा चुपचाप उन्हें देखते रह कर श्लील बने रहना या श्लील दिखाई देना भी सबसे बड़ा झूठ और सबसे घिनौनी अश्लीलता है।
वीरेश कुमार सिंह
सम्पादक
प्रेरणा-अंशु
समाजोत्थान संस्थान
दिनेशपुर, ऊधमसिंह नगर, उत्तराखंड

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