मेरी पोटली से – रूपेश कुमार सिंह
‘‘रूपा की माँ बहुत देर हो गयी, लेकिन अभी तक सक्सेना जी अपने लड़के को लेकर पहुँचे नहीं?’’ गोयल साबह ने दीवार घड़ी में टाइम देखते हुए कहा।
‘‘अरे! सफर सफर होता है। देर-सवेर हो ही जाती है। तुम हो कि जरा देर होने पर परेशान होने लगे।’’ रूपा की माँ ने रसोई से ही जवाब दिया।
तभी काॅल बेल बजती है।
‘‘लगता है कि सक्सेना जी आ गये। अरे! सुनती हो…तुम रसोई से बाहर आ जाओ, मैं देखता हूँ कौन है।’’ कहते-कहते गोयल साहब फटाफट मैन गेट तक पहुँच गये।
‘‘आइए…आइए…नमस्कार सक्सेना जी…भाभी जी…। और कहिए सफर में कोई परेशानी तो नहीं हुई?’’ मेहमानों को बैठाते-बैठाते गोयल साबह ने कुशलक्षेम पूछ ली।
‘‘नहीं-नहीं गोयल साबह कोई दिक्कत नहीं हुई। बस आपको हमारी वजह से कुछ इंतजार करना पड़ गया।’’ सक्सेना जी ने मिठाई का डिब्बा आगे सरकाते हुए जवाब दिया।
रूपा अपनी माँ के साथ चाय लेकर आयी और सबको नमस्कार करके सोफे पर बैठ गयी।
‘‘वाह-वाह कितनी सुन्दर और सुशील है आपकी बिटिया गोयल साहब। जैसा सुना था वैसा ही पाया। भाई! हमें तो रूपा पसंद है। क्यों बेटा तुम्हारा क्या ख्याल है?’’ सक्सेना जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
‘‘जैसा आप उचित समझें पिता जी’’ सक्सेना जी के लड़के ने नपातुला जवाब दिया।
अब क्या था, सक्सेना जी बोलना शुरू हो गये, ‘‘देखिए गोयल साहब हमारा मकान थोड़ा छोटा है, अब बहू उस जगह रहेगी तो शायद उसे भी अच्छा नहीं लगेगा। मतलब आरामदायक नहीं होगा। अब आप अपनी बेटी को कष्ट में देखना थोड़े चाहोगे? वैसे हमें तो सिर्फ बहू चाहिए। अब आप उसे फ्रीज, कूलर, वाशिंग मशीन देते हैं तो वो भी उसके ही काम आयेगी। यदि आप उसे गाड़ी देते हैं तो मेरा बेटा उसे शहर घुमा लायेगा। कभी-कभी। वैसे हमें तो सिर्फ बहू चाहिए। अब देखिए गोयल साहब, यदि आप दोनों को कुछ नगद धनराशि देते हैं तो वो भी उनकी नयी गृहस्थी के काम आयेगा। इसके अलावा और जो भी आप दोगे, उसे हम दान समझकर रख लेंगे। वैसे मैं स्वयं दहेज के खिलाफ हूँ। हमें तो सिर्फ बहू चाहिए। क्यों बेटा?’’ सक्सेना जी ने एक ही सांस में अपने इरादे जता दिए।
इतना सुनकर रूपा के माता-पिता उन्हें आश्चर्य से देखते रहे। मानों उनके पैरों तले जमीन खिसक गयी हो।
(यह लघुकथा 2003 में लिखी गई)
रूपेश कुमार सिंहसमाजोत्थान संस्थानदिनेशपुर, ऊधम सिंह नगरउत्तराखण्ड 2631609412946162