मास्साबः सिर्फ व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं!
– रूपेश कुमार सिंह
(भाग-एक यहाँ पढिए)
रामबाग आन्दोलन में हमने उनके गुरिल्ला लड़ाई के तौर-तरीकों को खूब समझा। व्यापक संगठन बनाकर उन्होंने हर मोर्चे पर कार्यकर्ता तैयार किये। जब आन्दोलन बहुत तीखा और शोषकों की ओर से हमलावर हो गया तो उन्होंने नौजवान कार्यकर्ताओं को लाठी का प्रशिक्षण भी दिया। मास्साब लाठी चलाने में माहिर थे। आर एस एस में वो शारीरिक दक्षता के प्रशिक्षक रहे थे। उन्होंने गांव के लोगों को संगठित किया। जो मजदूर-किसान कल तक भयग्रस्त थे वो संगठित होकर ताकतवर हो गये। दुश्मन को उसी की भाषा में जवाब देने के लिए तैयार हो गये। मोर्चाबंदी, जुलूस-प्रदर्शन के दौरान मास्साब मुस्तैद रहते थे। यही कारण था कि कई बार प्रशासन ने नेतृत्वकारियों और मास्साब को मुकदमें लगाकर गिरफ्तार करने की कोशिश की, लेकिन प्रशासन मास्साब के चक्रव्यूह को तोड़ नहीं पाया। बल्कि जमीदार, भ्रष्ट नेताओं और प्रशासन को हर बार मुंह की खानी पड़ी। ‘मौका देखो, हमला करो और छुप जाओ’ यह मास्साब की रणनीति होती थी। किसी भी आन्दोलन को जीतने के लिए यह जरूरी भी है। जनता की गोलबंदी पर उन्होंने खासा ध्यान दिया।
मजदूर-किसानों के साथ-साथ छात्र, नौजवानों और महिलाओं के अलग-अलग संगठन बनाकर उन्हें शोषण, गैरबराबरी, अन्याय के खिलाफ लामबंद किया। मास्साब कार्यकर्ताओं की हर समस्या को खुद से हल करते थे। कम समय में ही मास्साब और उनके साथियों का संघर्ष जनपद ही नहीं, बल्कि उत्तराखण्ड व देश में चर्चित हो गया। इससे समझा जा सकता है कि मास्साब कुशल रणनीतिकार व संगठनकर्ता थे। रामबाग आन्दोलन के दौरान ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव 1993 में एक साथ हुए। बलराज पासी ने एन डी तिवारी को पराजित किया और सांसद बने। तिलक राज बेहड़ भाजपा से विधानसभा चुनाव हार गये थे। चुनाव से पहले भाजपा रामबाग आन्दोलन के साथ थी और मास्साब नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन चुनाव के बाद भाजपा ने आन्दोलन से किनारा कर लिया और दोषियों से ही हाथ मिला लिया। इस बीच कई संघर्षशील ताकतें मास्साब के सम्पर्क में आयीं। और अन्ततः वे भाजपा व आर एस एस छोड़ भाकपा माले से जुड़ गये। यहीं से उनके वामपंथ के जीवन की शुरूआत हुई। वामपंथी साथियों ने उन्हें मास्साब कहना शुरू किया। पहाड़ के तमाम संघर्षशील साथी उसी दौरान मास्साब से मिले। पहाड़ पर अध्यापक को मास्साब कहकर ज्यादा पुकारा जाता है, इसलिए उनका नाम मास्साब ही चर्चित हो गया।
बात 1998 की है। वार्ड नं0 4, दिनेशपुर में पार्क को बचाने के लिए आन्दोलन चल रहा था। चारों ओर आबादी के बीच खाली पड़ी जगह पर प्रशासन व नगर पंचायत के अधिकारी नगर पंचायत कार्यालय बनाना चाहते थे। जुलूस-प्रदर्शन, धरना, ज्ञापन व अधिकारियों का घेराव चलता रहा। दूसरी ओर कार्यालय बनाने के लिए निर्माण कार्य भी लेंटर तक पहुँच गया। दो-चार दिन में लेंटर पड़ने वाला था। आस-पास के महिला-पुरुष, बच्चे-बुजुर्ग, आन्दोलनकारियों ने मास्साब के साथ बड़ी बैठक की। मास्साब ने आन्दोलनकारियों से सवाल किया-
‘‘पार्क बनाने के लिए आप लोग क्या कर सकते हैं?’’
लोगों ने कहा ‘‘हम जान दे सकते हैं।’’
‘‘जान देने की जरूरत नहीं है। सिर्फ चार-छः लोगों को 10-15 दिन के लिए जेल जाना पड़ेगा, लेकिन कार्यालय नहीं बन पाएगा। हमें रात में निर्माणाधीन बिल्डिंग गिरा देनी है।’’ मास्साब ने कहा।
आन्दोलनकारी तैयार हो गये। लेंटर से एक दिन पहले रात में दो-तीन घंटे में पूरी बिल्डिंग ध्वस्त कर दी गयी। नौ लोग जेल गये। लेकिन आन्दोलन की जीत हुई। प्रशासन को झुकना पड़ा। आज भी यहां खुला मैदान है। हरे-भरे पेड़ हैं। जेल गये लोगों की 15 दिन में जमानत हो गयी और 2-3 साल में मुकदमा भी समाप्त हो गया। यह एक बड़ा साहसिक काम था। नेतृत्व देने व निर्णय लेने में मास्साब निपुण थे। इस बीच प्रेरणा-अंशु का प्रकाशन सतत रूप से चलता रहा। साथ ही उन्होंने साप्ताहिक ‘अनसुनी आवाज’ का भी प्रकाशन किया। ‘‘खिलाड़ी चयन प्रतियोगिता, स्वदेश ज्ञान प्रतियोगिता, चित्रकला, निबंध और भाषण प्रतियोगिता, लघुकथा प्रतियोगिता’’ आदि का आयोजन राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर चलता रहा। इस वर्ष भी अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता करायी गयी थी। इस तरह मास्साब ने अपने तमाम संस्थागत कामों को संघर्ष के साथ-साथ न सिर्फ लगातार जारी रखा , बल्कि उन्हें तेज किया।
मास्साब उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के प्रवल समर्थक थे। पृथक् हिमालीय राज्य की आवश्यकता पर उन्होंने सन् 1990 में ‘‘प्रेरणा-अंशु’’ में सम्पादकीय भी लिखा था। तराई में तमाम बड़े जम़ींदार और नेता ऊधम सिंह नगर को उत्तराखण्ड में शामिल करने का विरोध कर रहे थे। मास्साब अपने संगठन के साथियों के साथ ऊधम सिंह नगर को उत्तराखण्ड में शामिल करने की मांग पर अडिग थे।। 1997 अगस्त माह में राज्य विरोधी ताकतों ने मास्साब को दिनेशपुर बाजार में घेर लिया। लगभग 40-50 लोगों ने उन पर लाठी-डंडों से हमला किया। उनके साथ जमकर मारपीट की। लगभग दो सौ मीटर तक उपद्रवी उन्हें मारते हुए ले गये। इस दौरान मास्साब बुरी तरह लहु-लुहान हुए, लेकिन झुके नहीं। उन्होंने न सिर्फ अपना बचाव किया बल्कि एक लाठी छीन कर हमलाबरों को मुंह तोड़ जवाब भी दिया। लाठी चलाने में मास्साब ‘मास्टर’ थे। चुस्ती फुर्ती और तीव्र बुद्धि के बलबूते वह हर चुनौती को नेस्तनाबूद करते रहे। इसके बाद दो बार भूमाफियाओं के गुण्डों ने मास्साब पर गोली भी चलायी, लेकिन वह बच गये। हमलाबर गिरफ्तार हुए। कई साल मुकदमा चलने के बाद दोषियों ने माफी मांगी तो मास्साब ने उन्हें माफ भी कर दिया। उनका मानना था कि माफी से बड़ी कोई सजा नहीं है। इससे उनके सरल हदय और क्षमा भाव को समझा जा सकता है।
इस बीच संगठन का काम काफी विस्तार पा चुका था। ऊधम सिंह नगर, बरेली, पीलीभीत में सघन काम चल रहा था। इसके अलावा देश के तमाम हिस्सों में संघर्षशील साथी आन्दोलन के अनुभव साझा करने व मदद के लिए बुलाने लगे थे। शासन-प्रशासन के लिए भी मास्साब एक बड़ी चुनौती बने हुये थे। लिहाजा जम़ीदार, माफिया, भ्रष्ट नेताओं और प्रशासन के गठजोड़ की ओर से हमले तेज हो गये थे। वैचारिक और व्यवहारिक रणनीति में फर्क के चलते भाकपा माले में भी बहस तीखी हो चली थी। मास्साब को गुमराह करना, धोखा देना और दोहरा चरित्र बिल्कुल भी नहीं भाता था। अन्ततः भाकपा माले छोड़ दी।
1998 में भाकपा माले से अलग होकर उन्होंने जनहित रक्षा मंच बनाया। एक साल में बड़ी तादात में नौजवान साथी मजदूरों-किसानों में फुल टाइम काम करने के लिए मास्साब से जुड़े। यह बहुत कठिन दौर था परिवार की आर्थिक दशा बहुत खराब थी। मास्साब ने घर और स्कूल का संचालन पूरी तरह से छोड़ दिया था। वह जनता के हक-हकूक और एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए निकल पड़े थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज के लिए ‘होम’ कर दिया, कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। 1996 में बड़े भाई वीरेश ने 10 वीं पास करने के बाद से स्कूल की जिम्मेदारी अपने कंधे पर ले ली थी। घर की स्थिति को देखते हुए भाई और मेरी पढ़ाई 10 वीं से लेकर पी0 जी0 तक प्राइवेट ही हुई। बड़ा भाई वीरेश खुद पढ़ता, स्कूल में पढ़ाता और तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लिखता भी था। साथ ही मास्साब के आन्दोलन में भी पूरी तरह से मदद करता था।
आम तौर पर सामाजिक कार्यकर्ता अपने काम से अपने परिवार और बच्चों को दूर रखते हैं, लेकिन मास्साब ने न सिर्फ परिवार को अपने संघर्ष में शामिल रखा, बल्कि बच्चों को जोर-जुल्म, अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए सशक्त बनाया। हमारे हालात इतने बुरे थे कि मैं अपने कुछ मित्रों के साथ दिनेशपुर से साइकिल चलाकर 15 किमी दूर रूद्रपुर राजमिस्त्री के साथ मजदूरी करने जाता था। इण्टर का प्राइवेट फार्म भरने के लिए मैंने पूरे 15 दिन काम करके 325 रूपये जमा किये थे। मैं भी इण्टर के बाद सन् 2001 से स्कूल में बड़े भाई का हाथ बंटाने लगा था। छोटे भाई रवि ने तो पूरे दो साल रूद्रपुर में रहकर मेहनत मजदूरी की और अपनी पढ़ाई जारी रखी। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने कभी समझौता नहीं किया, न ही ईमानदारी और न्याय का रास्ता छोड़ा। ‘परिवार पर ध्यान दो‘ के सवाल पर मास्साब कहते थे कि ‘‘मेरी लड़ाई एक बेहतर समाज बनाने की है, जब एक समतामूलक समाज बन जायेगा तो मेरा परिवार स्वतः ही सभी कष्टों से निजात पा जाएगा।’’ मम्मी और हम चारों भाई भी कभी इसलिए नहीं डिगे क्योंकि मास्साब ने लगातार हमसे संवाद बनाये रखा और स्वाभिमान व सत्य पर कायम रहने के संस्कार दिये।