स्वयं अनुभव से•••••••
रूपेश कुमार सिंह
कल एक मित्र सफर में साथ थे। खाने-पीने पर कोई कंट्रोल नहीं, प्रेशर बनना तो लाजिमी था।
रूपेश कुमार सिंह |
बोले, लेट्रीन जाना है, बहुत जोर से आ रही है। मैंने हल्द्वानी के जंगल में गाड़ी रोक दी। पानी की बोतल दी और इशारा करा, चले जाओ भीतर। फारिख होकर उन्होंने गाड़ी की रोक रुख किया, बोले, “पहली बार खले में शौच गया हूं। वरना जब तक अंग्रेजी सीट पर मोबाइल लेकर न बैठो, उतरती ही नहीं है।”
“जीवन से दो-चार नहीं हुए हो न, शहरी जेंटलमैन वाली जिन्दगी से उतर कर देहात और जंगल में रहने वालों की ओर रुख करो, हगने के अलग-अलग फार्मूले सीख जाओगे, मैंने कहा।”
खैर, लम्बी बहल चल निकली••• एक निजी अनुभव से मैंने बात को आगे बढ़ाया। आप भी पढ़े••• अक्तूबर, 2005 में मैं और जय प्रकाश पाण्डे हंसपुर खत्ता में कथित माओवादी कैम्प पर स्टोरी करने गये थे। पुलिस चौकी पर गाड़ी खड़ी की और दोनों जंगल की ओर पैदल चल दिए। तकरीबन आठ किलोमीटर चलने के बाद हम हंसपुर खत्ता पहुंचे। शाम ढल रही थी। स्टोरी के लिए गांव में रुकना ही एक मात्र चारा था। लेकिन पुलिस के प्रेशर के चलते गांव वाले हमें पनाह देने को तैयार नहीं थे। हम पत्रकार ही हैं और दिल्ली से स्टोरी करने आये हैं, यह विश्वास दिलाने में थोड़ा वक्त लगा। हम दोनों पहले पत्रकार थे, जो उन खत्तावासियों के बीच पहुंचे थे। डिबिया की रौशनी में जंगली साग, मोटी-मोटी रोटी और कटोरी भरकर देशी घी रात में हमें दिया गया। सुबह हमसे पहले गांव वाले उठ चुके थे। प्रेशर बना तो टाॅयलेट के बारे में पूछा। बच्चे ने बताया, “यहाँ सब नदी के किनारे ही जाते हैं।”
नदी किनारे लोग हग-मूत रहे थे, नहा रहे थे और कपड़े भी धो रहे थे। हमने भी किया जो सुबह-सुबह किया जाना चाहिए। जे पी भाई अचानक पूछ बैठे, “रूपेश हमने रात में खाने के बाद कौन सा पानी पिया होगा?” दोनों हंसें और स्टोरी में लग गये। वास्तव में लाखों लोग जो जंगल में रहते हैं, आदिवासी हैं, वो आज भी पुरातन जीवन पद्धति के सहारे जीवन काट रहे हैं। उनके लिए खुले में शौच करना समस्या नहीं है। शौचालय समस्या नहीं है। उनका जीवन ही एक बड़ी समस्या है, जिस पर किसी सरकार का कोई ध्यान नहीं है।
वैसे खुले में हगने का आनन्द ही कुछ अलग है। जिन दिनों दिशा मैदान के लिए लम्बी दूरी तय करनी होती थी, तलाश में नदी, नाले, तालाब, नहर, गूल आदि के किनारे महफ़ूज स्थान की। पैर टिकाने को कोई ऊंची जगह। कई बार झाड़ियों के बीच डालियों पर बैठकर फारिख होना•••आह हा•••मजा ही आ जाता था।अनजाने में पन्नी लीक हो जाने और डिब्बे का पानी लुढक जाने पर घास में रगड़ रगड़ कर साफ करने का भी दौर होता था। डाली टूटी तो कौन सा हिस्सा बच पाता सनने से यह जानने के लिए दोस्त की मदद लेनी होती थी। अपने आन्तरिक अवशिष्ट पदार्थ को बाहर आते हुए पूरी तरह से देखा जा सकता था। करते हुए भी और करने के बाद भी•••सुबह टहलते-इठलाते हुए एक-दो घंटे का सफर कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था। अब अंग्रेजी टाॅयलेट में बैठकर यह सब कहां???वास्तव में प्राकृतिक अवस्था में शौच का आनन्द ही कुछ और है।
” हल्द्वानी पहुंचने तक हमारी बातचीत खुले में हगने को लेकर चलती रही।”