भाग-6
मुसलमानों के अत्याचार से विवश होकर छोड़ी मातृभूमिः क्षीरोद चन्द्र मण्डल
-रूपेश कुमार सिंह
‘‘भोर में उठकर ही हम गुल्ली-डंडा लेकर माठ (मैदान) पहुँच जाते थे। गाँव के बच्चे वहीं जमा होते थे। अपने-अपने दोस्तों के साथ फिर शुरू होती थी धमाचैकड़ी। धूप चढ़ने तक बस खेलना ही खेलना। उस रोज भी हम अपनी दुनिया में खोये हुए थे। अचानक पूर्णचन्द्र काका (चाचा) के घर से शोर सुनायी दिया। बड़े-छोटे सभी उनकी झोपड़ी की ओर भागे। पास के गाँव के कुछ मुसलमान लड़के बैल बेचने के लिए जिद करते हुए झगड़ रहे थे। काका बोले, ‘‘हम लोग बैल से जमीन जोतते हैं। बैलों के बुजुर्ग हो जाने पर माँ-बाप की तरह उनकी सेवा करते हैं। यह हिन्दू सनातनी संस्कार है। गाय-भैंस हमारे लिए पुज्यनीय हैं। ये बैल तुम्हें नहीं दे सकते।’’ मुसलमान लड़के अपनी जिद पर अड़े हुए थे। घर के बाहर लोगों का जमावड़ा था। असल में आजादी के बाद हिन्दू बंगालियों में खौप पैदा करने के लिए मुसलमान इस किस्म की घटनाओं को अंजाम देते रहते थे।
एक मुसलमान लड़के ने जेब से दस का नोट निकालकर काका की तरफ उछाल दिया। बोले, ‘‘ये रख दस रुपये, लेना है तो ले, हम तो बैल ले जा रहे हैं।’’ दूसरे ने खँूटे से बैल को खोल लिया। बाकी के तीन-चार लड़के तलबार लेकर चारों ओर खड़े थे। काका ने विरोध किया। इतने में उनमें से एक ने बैल की गर्दन पर वार कर दिया। खून का फब्बारा फूट पड़ा। आँगन में खून से लथपथ बैल ने कुछ देर में दम तोड़ दिया। मुसलमान लड़के धमकाते हुए चले गये। गाँव के लोग यह खौपनाक मंजर देख रहे थे। हम बच्चे थे, लेकिन सब कुछ समझ आ रहा था कि अब पूर्वी पाकिस्तान में हम लोग ज्यादा दिन नहीं रह पायेंगे।’’
ऐसी तमाम घटनाओं के चश्मदीद हैं 82 साल के क्षीरोद चन्द्र मण्डल। खुलना जिले के हिजला थाना क्षेत्र के चरबड़ोबाटिया गाँव में जन्में क्षीरोद 1954 में भारत आये। कोलकाता के कई शरणार्थी कैम्पों और खड़गपुर (पश्चिम बंगाल) के कैम्प में 6 साल रहने के बाद रूद्रपुर ट्रांजिट कैम्प आये। यहाँ से 1960 में इन्हें मानपुर ओझा (स्वर्गफार्म) में जमीन और आवास अलाट हुए। पूर्वी पाकिस्तान में हुए दमन और अत्याचार की दास्तां बताते-बताते वे दोनों देशों की सरकारों को गाली देने से नहीं चूकते हैं। मौजूदा भारत सरकार पर भी उन्हें गुस्सा है। भारत में हिन्दुत्व की बात करने वाली भाजपा भी बंगाली शरणार्थियों को छल रही है, ऐसा क्षीरोद मण्डल का मानना है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कोसते हुए कहते हैं कि उन्होंने आरएसएस की मूल भावना को छोड़ दिया है। वे कहते हैं, ‘‘पूर्वी पाकिस्तान में मुसलमानों के अत्याचार और दमन से विवश होकर अपनी मातृभूमि को छोड़कर बंगाली हिन्दू भारत आये थे। एक उम्मीद थी कि भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा। लेकिन सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। बंगाली हिन्दुओं को पूछने वाला कोई नहीं है। देश में भाजपा की सरकार होने के बावजूद बंगालियों को नागरिकता नहीं मिल पायी है और न ही तराई में बसे लाखों बंगालियों को अनुसूचित जाति का दर्जा मिला है।
मोदी को भाषणबाज, जुमलेबाज करार देते हुए कहते हैं कि वे छात्र जीवन से ही आरएसएस से जुड़े हैं। मोदी की तरह नागपुर से ही ट्रेनिंग ली है। जिन्दगीभर सरस्वती शिशु मन्दिरों में शिक्षक रहे। देशभर में लाखों ऐसे समर्पित स्वयंसेवी हैं, उनके सपनों के भारत का क्या हुआ? मोदी की यह सरकार किसानों के खिलाफ काम करती है। जनता की समस्याओं के समाधान करने के बजाए संघ परिवार का प्रधानमंत्री भाषणवीर है।
वे बताते हैं कि 1947 के बाद कई साल तक पूर्वी पाकिस्तान में मुसलमानों द्वारा जानबूझकर साम्प्रदायिकता फैलाई गयी। घोर अराजकता का दौर था वो। हमारे गाँव में मुसलमान लड़के आते और दूर से कहते, ‘‘ये वाला मकान बहुत अच्छा है, इनके जाने के बाद इस पर मेरा कब्जा होगा। वो तालाब मेरा होगा, वो खेत मेरा होगा।’’ बातों-बातों में वे सब कुछ अपना मानकर खुश होते थे। ऐसा बंगालियो को चिढ़ाने के लिए किया जाता था। बहुत सी जगह जहाँ बंगाली हिन्दू नाममात्र के थे, वहाँ मुसलमानों ने सम्पत्ति कब्जा भी ली थी। देश छोड़कर हिन्दुस्तान आने वालों की सम्पत्ति पर नजर रहती थी। असरदार मुसलमान उस पर अपना अधिकार जमा लेते थे। वे बताते हैं कि फसल और पैसे के लेनदेन के चक्कर में उनके चाचा माधव मण्डल को मुसलमान जमींदार ने सरेआम काट दिया था। नामजद रिपोर्ट होने पर भी पुलिस ने हत्यारों पर कोई कार्यवाही नहीं की। उल्टा हमें ही धमकाती रही। जिस कारण साल भर के भीतर हमें भी गाँव छोड़कर भारत आना पड़ा।
बंगालियों की फसल, खेत, तालाब, जानवर और यहाँ तक कि महिलाओं पर मुसलमानों की नजर होती थी। बच पाना मुश्किल था। गाँव वालों को कुछ बोलते नहीं बनता था। पुलिस हमलावरों के साथ थी। या तो चुपचाप सब कुछ सहन करो या फिर विरोध करने पर उनकी हिंसा का शिकार हो जाओ। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं था। गाँव के गाँव खाली हो रहे थे। बंगालियों को भागता देख दमन और आतंक और फैलाया जा रहा था। वहाँ का जमींदार वर्ग बंगालियों को खदेड़कर उनकी जमीन पर आँखें गढ़ाये बैठा था। वे बताते हैं कि 1954 की किसी रात धान के खेत और नदी को पार करके बड़ी मुश्किल से उनके पिता जी और गाँव के कुछ लोग मधुमती नदी तक पहुँचे थे। वहां से इस्टीमर से भारत बाॅडर पर आये। रास्ते में छानबीन के नाम पर सब कुछ ले लिया गया। पैसे और कपड़े भी नहीं दिये गये।
नोआखाली के दंगों के दौरान पूर्वी पाकिस्तान में ऐसी घटनाएं नोआखाली के अलावा खुलना, जैशोर, बरिशाल जैसे सीमावर्ती जिलों मंे कहीं-कहीं होती रहीं। यह सिलसिला बांग्लादेश बन जाने के बाद भी लगातार जारी रहा। अल्पसंख्यक हिन्दुओं के उत्पीड़न पर न पाकिस्तान और न बांग्लादेश के हुक्मरान रोक लगा सके। दंगाई कट्टरपंथियों की इन हरकतों का बांग्लादेश में विरोध भी होता रहा। ऐसी घटनाओं पर हुमायूँ कबीर ने अल्पसंख्यक उत्पीड़न पर एक एनसाइक्लोपीडिया लिखा। ‘लज्जा’ लिखने के कारण तसलीमा नसरीन हमेशा के लिए बांग्लादेश से निर्वासित हो गईं और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक उत्पीड़न लिखने की वजह से सलाम आजाद प्रतिबंधित हैं। इसलिए यह तर्क सिरे से गलत है कि कुछ नहीं हुआ, बंगाली हिन्दू यूँ ही नहीं चले आये।
कई कैम्पों में रहने के बाद तालबगीचा कैम्प पहुँचे। तब विधान चन्द्र राय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने शरणार्थियों के साथ कदम-कदम पर धोखा और छल किया। दमदम और सियालदा के बीच विधाननगर (उल्टाडांगा) क्षेत्र है। यहाँ पानी भरा रहता था। दलदल थी। सरकार ने वहाँ शरणार्थियों को बसाने की बात कही। सारे शरणार्थियों को पानी की निाकसी के लिए बड़ा नाला बनाने में लगा दिया। कई साल मेहनत करने के बाद जमीन रहने लायक हुई, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के चलते सरकार ने वहां शरणार्थियों को नहीं बैठाया। शरणार्थी नेताओं ने कहा, ‘‘हम खुद अपनी जमीन छोड़कर रिफ्यूजी बनकर भारत आये हैं। यहाँ के लोगों को रिफ्यूजी बनाकर उनकी जमीन पर हम नहीं बससेंगे।’’ क्षीरोद मण्डल ने कैम्प में ही अपनी पढ़ाई की। वे हौनहार छात्र थे। स्वर्गफार्म आकर आगे की पढ़ाई के बाद उन्होंने आरएसएस के स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर में नौकरी की। वे संघ से जुड़ गये, लेकिन आज संघ के काम काज और वर्तमान मोदी सरकार से कतई खुश नहीं हैं।
बंगाली विस्थापितों का एक गाँव: मानपुर ओझा (स्वर्गफार्म)
जनपद ऊधम सिंह नगर और रामपुर के बाॅडर पर स्थित है बंगाली विस्थापितों का महत्वपूर्ण गाँव मानपुर ओझा। आम लोग इसे स्वर्गफार्म के नाम से जानते हैं। तराई के दिनेशपुर इलाके में बसे बंगाली गाँवों के मुकाबले यह सबसे बड़ा गाँव है। दिनेशपुर में किसी भी गाँव में 40-60 परिवारों से ज्यादा एक साथ आवंटन नहीं हुआ। स्वर्गफार्म में 167 बंगाली रिफ्यूजी परिवारों को बसाया गया। प्रारम्भ से ही मानपुर ओझा बिलासपुर तहसील, जिला रामपुर का हिस्सा रहा। रुद्रपुर से महज दस किमी दूर होने की वजह से इस गाँव के बंगाली विस्थापित रूद्रपुर की बंगाली काॅलोनियों से जुड़े रहते थे। रोटी-बेटी के संबंध पर यह सिलसिला आज भी जारी है। तराई में बंगाली शरणार्थियों को बसाने का काम दिनेशपुर में 1952 से ही शुरू हो गया था। दिनेशपुर के बाद 1958 में शक्तिफार्म, 1959 में स्वर्गफार्म और 1964 के बाद ट्रांजिट कैम्प, रूद्रपुर में भी स्थायी तौर पर बंगालियों का पुनर्वास हुआ।
ट्रांजिट कैम्प 1958 में ही बस गया था। यहाँ अस्थाई तौर पर लोगों को रखा जाता था। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, बरेली, बदायूँ, बहराइच, कानपुर, मेरठ और बिजनौर जनपदों में भी कुछ गाँव बंगालियों के बसे। उत्तर प्रदेश में पीलीभीत में ऊधम सिंह नगर के बराबर बंगाली शरणार्थियों का गाँव है। वहाँ पर बसा हाजरा चाँदुआ शारणार्थियों का सबसे बड़ा गाँव है।
पुनर्वास तो हुआ, लेकिन पुनर्वास विभाग द्वारा महज खानापूर्ति ही की गयी। बसासत बेतरतीब और बिना मास्टर प्लान के हुई। तराई के सभी गाँव आनन-फानन में बसा दिये गये। लोगों में भी सब्र नहीं था और प्रशासनिक स्तर पर ठोस पहलकदमी का अभाव था, जिस कारण तराई के तमाम बंगाली गाँव आज छोटी सड़क और निकासी की समस्याओं से जूझ रहे हैं। स्वर्गफार्म ही एक ऐसा गाँव है जो मास्टर प्लान के तहत तैयार हुआ। इसलिए इस गाँव की सड़कें चैड़ी हैं। गाँव खुला और व्यवस्थित है। इस रिपोर्ट में हम मानपुर ओझा (स्वर्गफार्म) की संरचना, स्थापना और मौजूदा स्वरूप को समझेंगे। हमने जगदीश चन्द्र गाईन(70), पीयुषकान्त राय(72), नारायण मधु(80) और संतोष सिकदार(58) से सामूहिक बात की। पेश है उनकी बातचीत पर आधारित यह रिपोर्ट-
अपनी गाड़ी से चलें तो रुद्रपुर, इन्द्र चैक से स्वर्गफार्म पहुँचने में बामुश्किल 25 मिनट लगते हैं। रूद्रपुर-दिल्ली नेशनल हाइवे 24 पर बिलासपुर से लगभग दस किमी पहले बायीं तरफ जाने वाली सड़क आपको स्वर्गफार्म ले जायेगी। सड़क के दोनों ओर लिप्टिस और पापुलर के पेड़ हैं। उसके पीछे हरे-भरे खेत। सड़क आम तौर पर शान्त रहती है। आवाजाही अपेक्षाकृत कम है। स्वर्गफार्म के आगे गाँव पड़ते रहेंगे और आप एकान्त सड़क से गुजरते हुए कुछ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद रामपुर जनपद की सीमा से बाहर बरेली जनपद की सीमा में प्रवेश कर जायेंगे। स्थानीय लोग बताते हैं कि कुछ साल पहले तक स्वर्गफार्म आने-जाने का रास्ता दयनीय स्थिति में था। सड़क बनने से लोगों को राहत है। विस्थापित बंगाली शरणार्थियों की तादाद लगातार बढ़ रही थी। इसलिए दिनेशपुर, शक्तिफार्म और पीलीभीत के बाद पुनर्वासन विभाग ने स्वर्गफार्म की ओर रुख किया। कालान्तर में यह नवाबों का फार्म था। बाद में सरकारी फार्म में मर्ज हो गया।
दिसम्बर, 1959 में अमूल्य रंजन जोद्दार सबसे पहले 18 रिफ्यूजी बंगाली परिवारों को साथ लेकर मानपुर ओझा आये। वे पूरे उत्तर प्रदेश में बंगाली शरणार्थियों के बड़े नेताओं में थे। यहाँ आने से पहले कई महीने ट्रांजिट कैम्प, रुद्रपुर में रुके। ट्रांजिट कैम्प से ही लोगों को बारी-बारी से विभिन्न क्षेत्रों में बने बंगाली गाँवों में भेजा जाता था। मार्च, 1960 में 6 परिवार, फिर अप्रैल में 16 परिवारों को मानपुर ओझा भेजा गया। अमूल्य रंजन जोद्दार उस समय यहाँ के अग्रज थे। उनके साथ द्रोणाचार्य राय, अमूल्य राय, जितेन्द्र सिकदार, सुखदेव मधु, अमूल्य हाल्दार ने मानपुर ओझा को आबाद किया। साथ ही बंगालियों की तीन बड़ी काॅलोनियां शान्तिनगर, कृष्णनगर और शिवनगर बसायीं। सरकार की ओर से तत्कालीन रामपुर जिलाधिकारी ओमियो भूषण मल्लिक ने मास्टर प्लान तैयार किया। चूँकि भूषण स्वयं बंगाली समाज से थे, इसलिए उन्होंने बंगाली गाँव की बसासत एवं डिजाइन पर खास ध्यान दिया। वे लोगों से मिलने-जुलने अक्सर आते थे। दुर्गा पूजा शुरू कराने में भी जिलाधिकारी मल्लिक ने महत्वपूर्ण योगदान किया। आसपास के सिख परिवारों से भी मदद जुटाकर वे बंगाली शरणार्थियों को देते थे। बंगालियों से साथ घुलमिलकर वे उनकी परेशानी को जानने की कोशिश करते थे। उन्होंने बंगाली शरणार्थियों के बीच आत्मविश्वास का संचार किया।
1959-65 तक सवर्गफार्म की 14 काॅलोनियों में 167 परिवारों का अलाटमेंट हुआ
मास्टर प्लान के तहत 30 वाई 60 का प्लाट प्रत्येक परिवार को दिया गया। सड़क, नाली के लिए भी भरपूर स्पेस छोड़ा गया। स्वर्गफार्म में पहले शरणार्थियों को आवास दिया गया। साथ ही हल, बीज और खेती के लिए कुछ जरूरी उपकरण दिये गये। पुनर्वास विभाग द्वारा 500 रुपये प्रति परिवार लोन भी दिया गया। जो बाद में वापस नहीं लिया गया। 5-6 माह बाद जमीन का आवंटन हुआ। प्रत्येक परिवार को पाँच-पाँच एकड़ जमीन दी गयी। इस जमीन पर बंगालियों को आज तक स्वामित्व हासिल नहीं हुआ है। आजीविका चलाने के लिए खेती करने की शर्त आज तक कायम है। हालांकि आपस में जमीन की खरीद-फरोख्त खूब हो रही है। इकरारनामे पर लिखवाकर अन्य समाज के लोग भी जमीन ले रहे हैं। 1959-65 तक स्वर्गफार्म की 14 काॅलोनियों में 167 परिवारों का अलाटमेंट हो चुका था। 1965 के बाद 71 तक बड़ी तादाद में विस्थापित बंगाली इस क्षेत्र में आये, लेकिन उन्हें जमीन, मकान आदि चीजें नहीं दी गयीं। ये लोग भूमिहीन ही रहे। कोई सरकारी सुविधा भी प्राप्त नहीं हुई। आज स्थिति यह है कि अलाटी परिवारों से पाँच गुना ज्यादा लोग भूमिहीन यहाँ बसे हुए हैं।
1961 के बाद ग्यारह नयी बंगाली काॅलोनियां बसायीं गयीं। जिनमें लक्खी काॅलोनी लक्खीकान्त राय, बाबू काॅलोनी बाबू लाल राय, ब्रह्म्य काॅलोनी दुलाल ब्रह्म्य, कालू चर काॅलोनी कालू बढ़ोई, लक्ष्मण काॅलोनी लक्ष्मण राय, वृन्दा काॅलोनी वृन्दावन सरकार, राम काॅलोनी बाबू राम विश्वास, काली काॅलोनी कृष्णदास राय, शर्मामोड़ जुदन विश्वास शर्मा के नाम से बसीं। पुराने बुजुर्गों या समाज के अग्रज लोगों के नाम से ही काॅलोनी के नाम रखे गये। इसके अलावा इस क्षेत्र में उत्तरमठ व गोकुल नगर भी बंगाली काॅलोनी हैं। 1961 में दुर्गापूजा शुरू हुई। 1965 में मनीमोहन चक्रवर्ती और निरापद चक्रवर्ती दो ब्राह्म्ण परिवारों को स्वर्गफार्म में लाया गया। समाज ने उन्हें बसाया। कर्मकाण्ड और संस्कार के लिए ब्राह्म्ण परिवारों को यहाँ बसाया गया था। इससे पूर्व लोग पूजा-पाठ इत्यादि स्वयं करते थे। पंडित परिवारों के आने से शादी, मृत्यु संस्कार, दुर्गा पूजा व अन्य अनुष्ठान उन्हीं से कराया जाने लगा।
बंगाली समाज ने अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों को दुर्गापूजा के साथ 1961 में शुरू किया। मनोरंजन का कोई साधन था नहीं, इसलिए जात्रागान(चारों तरफ से खुले मंच पर होने वाला नाटक) खेलना शुरू हुआ। सांस्कृतिक कार्यक्रम करने वालों में तब पुलिन बिहारी राय, नरेन्द्र मण्डल, कृष्णपद विश्वास, राजेश्वर मण्डल, वीरेश्वर मण्डल, देवेन्द्र मण्डल, दिलीप मण्डल, रमाकान्त बैरागी, जगदीश गाइन, प्रमुख कलाकार थे। पुलिन ढाली महिला किरदार निभाते थे। 2011 की जनगणना के अनुसार स्वर्गफार्म में सात हजार तीन सौ बंगाली लोग थे। पिछले ग्राम सभा चुनाव में 4850 वोटर थे। लोग बताते हैं कि बसासत के समय स्वर्गफार्म जंगल का क्षेत्र था। आसपास सरदारों के झाले थे। ये सरदार परिवार भी ज्यादातर 1947 के विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आये थे। जमीन उबड़-खाबड़ थी। खेती करना बहुत मुश्किल था। नीची जमीन में महीनों पानी भरा रहता था। दलदली जमीन को उपजाऊ बनाना टेड़ी खीर था। इसके लिए बुजुर्गों ने कड़ी मेहनत की थी। उनकी बदौलत ही आज तराई इतनी उपजाऊ है। जमीन को सुखाने के लिए पानी निकालना और निकासी बनाना बड़ी चुनौती थी। तब बीज छिड़के जाते थे। मक्का, धान, लाई और चने की पैदावार होती थी।
भाषा और तौर-तरीके समझने में तो लोगों को कई दशक लगे।
आसपास के इलाके में सरदारों का वर्चस्व था। इसलिए भी अलाटमेंट वाले परिवारों ने अपने मिलने वाले भूमिहीन लोगों को अपने साथ रख लिया। तब एक साथ रहने की ज्यादा जरूरत महसूस होती थी। जानवर पालना भी खतरे से खाली नहीं था। चोरी-चकारी आम थी। अनाज और जानवर अक्सर चुर जाते थे। तब इस क्षेत्र में बंगाली समाज डरा-सहमा रहता था। स्थानीय लोगों से बात करने की हिम्मत नहीं होती थी। भाषा-बोली का भेद भी इसकी मुख्य वजह थी। स्थानीय लोग बंगालियों को आदिवासी समझते थे। काफी कुछ उस समाज से मिलता-जुलता भी था। इस कारण लोग कटते थे। लेकिन जब जरूरत पड़ी और जैसे-जैसे समय बीता और समझ बढ़़ी स्थानीय लोग मददगार साबित हुए। भाषा और तौर-तरीके समझने में तो लोगों को कई दशक लगे। इधर के लोग बांग्ला नहीं जानते थे और बंगाली लोग हिन्दी से अपरिचित थे। बोली और भाषा की वजह से कई गंभीर हादसे भी हुए।
एक किस्सा यूँ है कि तब बंगालियों का स्वर्गफार्म से रूद्रपुर आना यदाकदा ही होता था। रुद्रपुर में भी गिनीचुनी दुकानें हुआ करती थीं। एक बुजुर्ग बंगाली इमली लेने दुकान पर गया। बांग्ला में खट्टी चीज(जैसे इमली) को चूआ कहते हैं। दुकानदार को चूहा समझ में आया। दुकानदार ने सोचा ये लोग आदिवासी हैं, हो सकता है कि ये चूहा खाते हों। उसने एक घंटे बाद आने को कहा। दुकानदार ने पैसे बनाने थे। दुकान के लड़के को चूहा खोजने में लगा दिया। तब इस इलाके में चूहे होते भी बहुत थे। बंगाली बुजुर्ग दोबारा दुकानदार के पास पहुँचे। दुकानदार ने तीन-चार चूहे पकड़ के एक थैले में बंद कर लिये थे। बुजुर्ग उसे लेकर घर आ गये। थैला खोला तो लोग हँसते-हँसते लौट-पोट हो गये। बाद में समझ आया कि माजरा क्या है।
एक और वाकया लोगों ने बताया। गेहँू को बांग्ला में गोम कहते हैं। बोलते वक्त हिन्दी भाषियों को बोम(बम) समझ आता है। दो बंगाली कट्टे में गेहूँ भरकर रुद्रपुर बेचने जा रहे थे। बिलासपुर मोड़ पर पुलिस ने इन्हें रोक लिया। सवाल किया, ‘क्या ले जा रहे हो?’ बोले, ‘गोम।’ कई बार यह दोहराने से वहाँ हड़कंप मच गया। बम ले जाने की बात पुलिस को समझ आयी। पुलिस ने दोनों को बैठा लिया। जब कट्टा खोला गया तो उसमें सिर्फ गेहूँ निकले। इस किस्से को सुनाते वक्त उस वक्त के बच्चे, आज के बुजुर्ग खूब हँसते हैं।
एक और दिलचस्प मामला लोगों ने बताया। कुछ बंगाली बुजुर्ग रुद्रपुर से स्वर्गफार्म आने के लिए गलती से बिलासपुर वाले तांगे में बैठ गये। जब तांगा स्वर्गफार्म न जाकर बिलासपुर की ओर मुड़ा तो उन्होंने आवाज लगायी, ‘आमी गिरबो’(मैं गिरूंगा) असल में वे उतरना चाह रहे थे। लेकिन उतरने के लिए ‘रोको’ या ‘उतार दो’ कह नहीं पाये। जोर-जोर से बोलने लगे ‘गिरबो-गिरबो।’ तांगे वाले ने तांगा नहीं रोका, तब उन्होंने तांगे से कूद लगा दी। हालाँकि ज्यादा चोट तो नहीं आयी, लेकिन यह किस्सा आज तक बच्चों को सुनाया जाता है।
अन्य समाज के लोगों को बस्ती के बीच में जगह नहीं दी जाती है।
आज बड़ी समस्या यह है कि पाँच एकड़ की जोत पीढ़ी दर पीढ़ी बंटबारे के कारण छोटी हो गयी है। छोटी जोत में खेती करना खर्चीला है। इसलिए अब ज्यादतर लोग खुद खेती नहीं करते हैं। पैसे वाले सरदारों या बंगाली समाज में रसूकदार लोगों को अपने खेत बँटाई या ठेके पर दे रखे हैं। अब ठेके पर खेती का चलन ज्यादा है। नयी पीढ़ी पढ़-लिख कर रोजगर के लिए बड़े शहरों की ओर रुख कर रही है। खास बात यह है कि स्वर्गफार्म में बंगाली काॅलोनियों में अन्य समुदाय के लोग नहीं मिलेंगे। ऐसा अन्य कहीं नहीं है। स्वर्गफार्म में कभी असुरक्षा की भावना से नियम बनाया था कि अन्य समाज के लोगों को बस्ती के बीच में जगह नहीं दी जाएगी। जो आज तक जारी है। अलबत्ता दो-चार परिवार अन्य रह जरूर रहे हैं। दुर्गापूजा के अलावा बंगाली लोग लक्ष्मी पूजा, काली पूजा, दोल पूजा(होली) कार्तिक पूजा, विश्वकर्मा पूजा, सरस्वती पूजा बहुत जोर-शोर से करते हैं।
मकरसंक्रान्ति, गीता पाठ, महानाम कीर्तन, चड़क पूजा, हरिनाम कीर्तन, मनसादेवी पूजा, हल बैशाखी पूजा भी धूम-धाम से की जाती है। यहाँ लोग वैष्णव, मतुआ, अनुकूल ठाकुर के सत्संग व सुख सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। बढ़ती जनसंख्या के कारण बंगाली समाज आज भी आर्थिक तौर पर बहुत पिछड़ा है। नशे की लत नौजवानों को दिग्भ्रमित कर रही है। बांग्ला भाषा और संस्कृति का लोप हो रहा है। टूटते सामाजिक संबंध यहाँ के बुजुर्गों की बड़ी पीड़ा है।
रूपेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
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