-रूपेश कुमार सिंह
यह सही वक्त है, सियासी गोटी फिट करने का। कोरोना के चलते लोग घरों में कैद हैं। खाली हैं, समय भरपूर है। कब तक टीवी देखें, बच्चों के साथ खेलें, रसोई में समय दें…समय बड़ी मुश्किल से कट रहा है। ऐसे में स्थानीय नेताओं की नाटकीय जुबानी जंग लोगों को रोमांचित कर रही है। माहौल में राजनीतिक सरगर्मी तेज है। चर्चाओं का बाजार भी गर्म है। खबरों के लिए कलप रहे पत्रकारों को भी मसाला मिल गया है। नेताओं को अखबार में मनचाही जगह मिल रही है और पब्लिक को भी कोरोना से इतर खबर।
किच्छा के विधायक राजेश शुक्ला और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री तिलक राज बेहड़ इन दिनों जुबानी चोंच लड़ा रहे हैं। दे-दनादन विडियो वायरल हो रहे हैं। फेसबुक, व्हाट्स एप और सोशल मीडिया पर जमकर भड़ास निकाली जा रही है। एक-दूसरे के राजनीतिक कद को चुनौती देने के लिए कोरोना की मारक क्षमता से तेज वार हो रहे हैं। वैसे यह जुबानी आरोप-प्रत्यारोप कोई नया नहीं है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए समय-समय पर दोनों खेमों के करतस से तीखे तीर निकलते रहते हैं।
इस बार चीनी मिल पर तू-तू, मैं-मैं तो महज एक बहाना है। किच्छा विधानसभा सीट पर वर्चस्व कायम करना असल मकसद है। दरअसल राजेश शुक्ला ने पिछले चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत को पराजित कर खुद को अभेद्य घोषित कर दिया था। उनका राजनीतिक गुरूर सिर चढ़कर बोल रहा है। कैबिनेट मंत्रीमण्डल में जगह पाने को उन्होंने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया था। यह बात दीगर है कि उन्हें लालबत्ती तक न मिली।
तिलक राज बेहड़ अपनी राजनीति को पुनः चमकाने के लिए किच्छा को रूद्रपुर से ज्यादा महफूज मान रहे हैं। इसलिए उन्होंने शुक्ला के विरोधियों से सम्पर्क साध कर 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए ताल ठोंक दी है। इस कोरोना काल में 2022 के विधानसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास शुरू हो गया है। जनता फिलहाल तो दोनों दिग्गजों की उठा-पटक का आनन्द ले रही है, लेकिन उसे सजग रहना चाहिए। असल में बेहड़ और शुक्ला के बीच तनातनी नयी नहीं है। दशकों पुरानी राजनीतिक और व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा एक बार फिर से खुलकर सामने है। आइए पुराने घटना क्रम को संक्षिप्त में समझने की कोशिश करते हैं।
राज्यगठन के पूर्व तराई में खास कर किच्छा, रूद्रपुर और गदरपुर क्षेत्र में खत्री, पंजाबी राजनीतिक का वर्चस्व था। तिलक राज बेहड़ एक सशक्त नेता थे। पंजाबी समाज में एकछत्र नेता होने के साथ-साथ वह भाजपा से विधायक भी थे। ऊधम सिंह नगर को उत्तराखण्ड से अलग रखने के लिए रक्षा समिति का आन्दोलन शुरू हुआ। बड़े फार्म मालिकों, व्यापारियों, राइसमिलों के मालिकों और पैसे वालों ने रक्षा समिति का खुलकर समर्थन किया। राजेश शुक्ला समिति के नेता बनकर उभरे। बड़े पंजाबी तबके का साथ उन्हें मिला। इससे बेहड़ को अपना जनाधार खिसकता हुआ नजर आया और विरोध की राजनीति शुरू हो गयी। हालांकि बेहड़ खुद ऊधम सिंह नगर को उत्तराखण्ड से अलग रखने की मांग के समर्थक थे, लेकिन भाजपा के विधायक होने के नाते वह खुलकर सामने नहीं आ सकते थे। आन्दोलन का श्रेय राजेश शुक्ला को मिलने लगा। यही वजह दोनों के बीच टकराव का पहला कारण बना।
राज्य बनने के बाद बेहड़ सत्ता में थे और शुक्ला सपा के नेता बन चुके थे। इधर एक बारीक चीज यह उभर कर सामने आयी कि राजेश शुक्ला गैर पंजाबी समाज के नेता के तौर पर उभरकर सामने आने लगे। 2002 के चुनाव में बेहड़ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत कर पहली चुनी हुई सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बने। चुनाव जरूर बेहड़ ने जीता, लेकिन शुक्ला ने एक बड़ा विकल्प तैयार कर लिया। वह बेहड़ के लिए आने वाले समय के बड़े प्रतिद्वंदी बन गये थे। दोनों ओर से आक्रमण होने लगे। हालांकि बेहड़ की उस समय तूती बोलती थी। प्रदेश के कद्दावर नेता बन चुके थे।
2003 में रविन्द्र नगर काण्ड में भी राजेश शुक्ला और तिलक राज बेहड़ आमने-सामने थे। बंगाली समाज का बड़ा धड़ा शुक्ला की ताल से ताल मिला रहा था।
रूद्रपुर मेडिकल काॅलेज के शिलान्यास को लेकर भी दोनों नेता आमने-सामने थे। असल में 2004 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. डी. तिवारी ने मेडिकल काॅलेज का शिलान्यास किया। उसमें लिखा था, ‘‘माननीय स्वास्थ्य मंत्री तिलक राज बेहड़ के 47 वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में’’ शिलान्यास। वो शिलापट आज तक जिला अस्पताल में लगा हुआ है। शुक्ला ने जन्मदिन के उपलक्ष्य में बात शिलापट पर अंकित करने का विरोध किया था।
2005 में पप्पू शाही एनकाउंटर मामले में भी बेहड़ और शुक्ला के बीच जमकर जुबानी जंग हुई। उस समय गैर पंजाबी समाज बड़ी तादाद में बेहड़ के खिलाफ खड़ा हुआ। हालांकि शुक्ला भी राजनीतिक फायदा लेने की फिराक में थे।
2007 के चुनाव में राजेश शुक्ला फिर से बेहड़ के समाने थे। इस बार शुक्ला को पूरी उम्मीद थी कि वह बेहड़ को पटखनी दे देंगे, लेकिन बेहड़ पुनः चुनाव जीत गये। और जवाबी हमला तेज हो गया।
2012 के चुनाव से पहले भदईपुरा की रामलीला कमेटी का विवाद तो इतना गरमाया कि बेहड़ और शुक्ला दोनों हाथापाई पर उतारू हो गये। जुबानी जंग अब सड़क पर थी। दोनों की ओर से जमकर प्रहार हुए।
2012 के चुनाव में शुक्ला भाजपा में शामिल होकर किच्छा से चुनाव लड़े और जीत गये। बेहड़ रूद्रपुर सीट से चुनाव हार गये। अब धीरे-धीरे शुक्ला का ग्राफ बढ़ने लगा और बेहड़ की राजनीतिक जमीन खोदने का काम राजेश शुक्ला और राजकुमार ठुकराल ने शुरू कर दिया। तनातनी बढ़ती रही।
2017 के चुनाव में शुक्ला फिर जीते और बेहड़ फिर हारे। अब राजेश शुक्ला ज्यादा आक्रामक हैं और हर वो पैंतरा अपना रहे हैं जिससे बेहड़ को कमजोर किया जाये। हरीश रावत के मुख्यमंत्री रहते राजेश शुक्ला ने अपने पिता के नाम पर मेडिकल काॅलेज का नाम कराने में सफलता हासिल की। हालांकि दोनों के बीच कोई बड़ी डील हुई थी, इसकी चर्चा आज तक है, लेकिन न तो इस बारे में हरीश रावत ने कुछ कहा और न ही शुक्ला ने।
अब जब बेहड़ ने किच्छा से चुनाव लड़ने का मन बना लिया है तो उनका शुक्ला पर राजनीतिक हमला बोलना लाजिमी है। दरअसल बेहड़ को लगता है कि पंजाबी वोट उनके साथ आयेगा और मुसलमान वोट भी किच्छा में ज्यादा है। शुक्ला के विरोधी भी बेहड़ को प्रमोट कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले आठ साल में राजेश शुक्ला ने कोई ठोस विकास कार्य नहीं किया है, जिस वजह से जनता में उनकी पकड़ लगातार कमजोर पड़ रही है।
तो दोस्तों! चीनी मिल तो बहाना है, अब अगले एक साल तक इस किस्म की जुमलेबाजी और नाटकीय जुबानी टीका-टिप्पणी दोनों ओर से बदस्तूर जारी रहेगी। इसकी पूरी संभावना है। फिलहाल आप घर में रहें, कोरोना को मात दें। बाकी 2022 में किच्छावासी किसको मत देंगे और किसको मात, यह तो भविष्य के गर्भ में है।
-रूपेश कुमार सिंहस्वतंत्र पत्रकार9412946162