सत्ता में वर्चस्व के लिए प्रायोजित था रक्षा समिति का आन्दोलन !
उत्तराखण्ड पहाड़ियों का राज्य होगा। यहां पहाड़ियों का वर्चस्व होगा। अन्य समुदाय व तराई के साथ भेदभाव होगा। सीलिंग एक्ट सख्ती से लागू होगा। ऐसी तमाम आशंकाओं को हवा देकर सपा, किसान यूनियन के नेताओं व बड़े फार्म मालिकों ने मिलकर 1997 के अन्त में गोल मार्केट रूद्रपुर में बैठक की। बैठक में ऊधम सिंह नगर को उत्तराखण्ड से अलग करने के लिए आन्दोलन करने को रक्षा समिति का गठन किया गया। खटीमा के बड़े फार्मर व कांग्रेस नेता अनन्त राम तलबार को अध्यक्ष व सपा नेता राजेश शुक्ला को महामंत्री चुना गया। इसके अलावा केन्द्रीय स्तर पर 21 नेताओं की कमेटी बनायी गयी। जिसमें किसान यूनियन के चैधरी राय सिंह, अकाली दल नेता हरभजन सिंह चीमा, कांग्रेस नेता हरगोविन्द सिंघल, सीपीएम नेता कामरेड महिपाल सिंह, बसपा नेता भाग सिंह आदि शामिल थे।
1997 के अन्त में उठी मांग-
संगठित तौर पर जरूर 1997 के अन्त में जनपद को अलग रखने की मांग उठी हो, लेकिन विरोध की सुगबुगाहट 1994 में मुजफ्फरनगर काण्ड के बाद शुरू हो गयी थी। इस दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव थे। घटना के बाद से उत्तराखण्ड की जनता और मुलायम सिंह आमने-सामने थे। इधर राज्य के लिए आन्दोलन भी चरम पर था। जानकार बताते हैं कि मैदान में अपने वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए मुलायम सिंह यादव ने पहाड़ और मैदान के बीच की खाई को चैड़ा किया। मुलायम सरकार में तक बाजपुर निवासी सरदार भुपेन्द्र सिंह राणा एम एल सी हुआ करते थे। मुलायम ने भुपेन्द्र को लखनऊ बुलाया और कहा, ’’ पूरा उत्तराखण्ड अलग राज्य के लिए जल रहा है, तुम लोग क्या कर रहे हो? क्या तुम लोग उत्तराखण्ड में सुरक्षित रहोगे?’’ ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार में सपा कमजोर थी। इस मुद्दे को उठाकर सपा अपनी जड़ मजबूत करना चाहती थी। सपा ने अलग राज्य का कभी समर्थन नहीं किया। इस कारण भी सपा ने केन्द्र सरकार को अलगाव में डालने के लिए इस मामले को हवा दी।
पंजाब और लखनऊ से संचालित होती थी लड़ाई-
1995 के प्रारम्भ में भुपेन्द्र सिंह राणा व पूर्व ब्लाक प्रमुख ठाकुर मानवेन्द्र सिंह ने इन्द्रा चैक रूद्रपुर के समीप पुराने जिला चिकित्सालय में बड़ी रैली की थी। उस समय इस आन्दोलन को पर्याप्त समर्थन नहीं मिला। लोग नहीं जुटे। उधर मुलायम सरकार भी गिर गयी। राज्य के तुरंत बनने के चांस भी कम हो गये। 1996 में मायावती ने नैनीताल से तराई का हिस्सा अलग करके ऊधम सिंह नगर जनपद बनाया। बसपा भी इस मुददे को भुनाने में लग गयी। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि तराई को उत्तराखण्ड से अलग रखने की लड़ाई पंजाब और लखनऊ से संचालित होती थी। तराई में बड़े पैमाने पर पंजाब और लखनऊ के बड़े नेताओं की जमीनें थीं। जानकार बताते हैं कि अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल और उनके करीबी रिश्तेदारों की हजारों एकड़ जमीन उस वक्त तराई में थी। इसलिए सीलिंग एक्ट का भय सबको था। हालांकि राज्य बनने के बाद ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
राजनेतावों, अधिकारियों और औद्योगिक घरानों के लोगों के थे बड़े-बड़े फार्म-
तराई में बड़े राजनेताओं के अलावा अधिकारियों-अफसरों, बड़े औद्योगिक घरानों, प्रभावशाली सत्ता वर्ग के लोगों के बड़े-बड़े फार्म खाम सुपरिटेंडेंट के जमाने में 1952 में बन चुके थे। यह सिर्फ नैनीताल, ऊधम सिंह नगर में ही नहीं, बल्कि पीलीभीत, रामपुर, बरेली, मुरादाबाद और बिजनौर में भी थे। इनपर जमींदारी कानून, भूमि सुधार कानून और सीलिंग एक्ट का भी खास असर नहीं पड़ा। इसलिए रक्षा समिति के आन्दोलन के माध्यम से जमीन को सुरक्षित और कब्जे में रखने की राजनीति प्रमुख थी। पहाड़ से बने उत्तराखण्ड के चार मुख्यमंत्री पंडित गोविन्द बल्लभ पंत, चन्द्र भानु गुप्त, हेमवती नन्द बहुगुणा और एन डी तिवारी इन्हीं बड़े फार्मरों और भूमि माफिया के समर्थन, धनबल पर सत्ता की राजनीति, इन्हीं के हित में करते रहे। यही वजह है कि ऊधम सिंह नगर रक्षा समिति आन्दोलन हो या दूसरे मैदानी जिलों को उत्तराखण्ड में शामिल कराने की मुहिम, उत्तराखण्ड में सत्ता की राजनीति करने वाले नेता उनके विरोध में कभी मुंह नहीं खोल सके। बल्कि इनमें से अनेक दबे हुये तौर पर उत्तराखण्ड विरोधी तत्वों का पूरा साथ निभाते रहे, अपना राजनीतिक बजूद बनाये रखने की गरज से।
अगले भाग में जारी……………………
-रूपेश कुमार सिंह09412946162
पड़तालः ऊधम सिंह नगर रक्षा समिति आन्दोलन 1997-2000 (भाग-एक)
पड़तालः ऊधम सिंह नगर रक्षा समिति आन्दोलन 1997-2000 (भाग-तीन)
पड़तालः ऊधम सिंह नगर रक्षा समिति आन्दोलन 1997-2000 (भाग-चार)