मैदान के गांव भी हो रहे हैं खाली (भाग-दो)

Share this post on:

मैदान के गांव भी हो रहे हैं खाली

“ये सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा,सियासत अपनी चालों सेकब तक, किसानों को छलता रहेगा?”

भारत किसानों का देश है

भारत किसानों का देश है और किसान गांव में बसते हैं। यह वाक्य हम बचपन से सुनते, पढ़ते आ रहे हैं। 65 फीसदी आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। लेकिन जो हालात आज किसान व खेती के हैं, वो मंजर बहुत भयावह है। किसान मुल्क की रीढ़ हैं, लेकिन सियासत के खूनी पंजों ने उसे निढाल बना दिया है। किसान बदहाल हैं, परेशान हैं और आत्महत्या करने को मजबूर भी हैं। फसल का वाजिब दाम नहीं मिलता, लागत बेहिसाब है। अनिश्चितता का तो क्या कहिये? जब तक फसल उठकर मण्डी न चली जाये, पता नहीं होता कि कब किसान बर्बाद हो जाये। आज का किसान वास्तव में बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है। ऐसे में ‘शाही’ के किसानों की तकलीफ देश के किसानों से कैसे जुदा हो सकती है?

नदी किनारे बसे होने के कारण, नदी के दोनों तरफ गर्मी में पालेज जमकर लगायी जाती है। तरबूज, खरबूज, खीरा, लौंकी, ककड़ी, तुरई, सीताफल आदि की पैदावार खूब होती है। इसके अलावा गन्ना, सरसों, उड़द, अरहर, ज्वार-बाजरा की खेती भी बहुतायत में होती है। गेंहू भी पैदा होता है, लेकिन चावल न के बराबर। चकबंदी हुए एक जमाना हो गया है। बड़ी-बड़ी जोत छोटे-छोटे खेत में तब्दील हो चुके हैं। परंपरागत तौर-तरीके शाही की खेती में खूब देखे जा सकते हैं। हालांकि पेस्टीसाइड का इस्तेमाल धड़ल्ले से बड़ा है।

खेती घाटे का सौदा बन गयी है

पूरे देश के तमाम गांव के माफिक शाही में भी खेती घाटे का सौदा बन गयी है। भण्डार गृह का न होना, मण्डी का न होना और ढुलाई के लिए परिवहन की बेहतर सुबिधा न होना ही किसानों को मजबूर करती है कि वो अपना माल साप्ताहिक हाॅट बाजर में ही बेचें। महाजन, आढ़ती और सूदखोरों के तौर पर उभरे नये दलाल वर्ग ने अपने शिकंजें में किसानों की गर्दन बुरी तरह फांस रखी है। चाह कर भी किसान इनके जाल से बाहर नहीं आ पाता है। दस रूपये सैकड़े के हिसाब से ब्याज पर पैसा देने वालों ने शहर के माफिक शाही में भी अपनी जड़े जमा लीं हैं। प्रत्येक किसान कर्ज में डूबा है। सरकारी बैंकें व सहकारी समिति भी किसानों को कोई राहत नहीं दे पा रहीं हैं। बैंक का कर्ज आज किसानों की मौत का कारण बन रहा है। शाही में भी ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे।
शाही में आम तौर पर खपड़ेल, कड़ीदार व कच्चे घर ही मिलेंगे। पिछले 20 सालों में लेंटर का चलन शुरू हुआ है, लेकिन रफ्तार धीमी है। अधिकांश मकान पुराने ढांचे पर ही टिके हैं। चौमासा शुरू होने से पहले छत पर मिट्टी की लिसाई की जाती है। ताकी घर के भीतर बरसात का पानी न जा सके। बावजूद इसके दरबाजे, खिड़की और दीवार पर नक्काशी का काम खूब मिलेगा। पशुपालन में कमी आयी है। चारागृह के सिमटते मैदान इसके लिए जिम्मेदार हैं। शाही में काम भी जाति विशेष पर टिका है, इसलिए हर कोई व्यक्ति आसानी से दूसरे व्यवसाये को नहीं चुन पाता है। व्यवसायिक खेती से शाही अछूता है। प्रचार-प्रसार ही नहीं हुआ इस वाबत इधर। बागवानी खूब होती है। बड़े-बड़े बाग मिलेंगे आपको। गांव की चौपालें और पंचायतें भी अपने पुराने स्वरूप को छोड़ चुकी हैं। लड़ाई-झगड़े बड़े हैं, पुलिस की सक्रियता भी बड़ी है।

नयी पीढ़ी  नहीं ले रही खेती-किसानी में रूचि

कोई भी शुभ कार्य हो तो आम तौर पर सत्यनारायण की कथा, भागवत पाठ, हवन, माता का जगराता और बुलब्बा(महिलाओं का सामुहिक संगीत) बस यही होता है। अशुभ हो तो गरूण पुराण का पाठ। नशे और शराब का चलन बड़ा है। अब तो शाही में अंग्रेजी शराब की दुकान भी खुल चुकी है। पहले देशी शराब पन्नी में मिलती थी। शादी-विवाह में कुछ-कुछ जगह डी. जे. का शोर सुनने मिलता है। सामुहिक भोज सामान्यतः जमीन पर बैठाकर ही होता है, लेकिन पैसे वाले स्टैंडिंग व्यवस्था भी करने लगे हैं, लेकिन नजारा देखने वाला होता है। बात किसानों से शुरू की थी, तो बता दूं कि नयी पीढ़ी के बच्चे खेती-किसानी में रूचि नहीं ले रहेे हैं। खेत बटाई या ठेके पर देने की संस्कृति तेज हुई है। इन सबके बीच शाही का किसान खेती से पलायन कर रहा है और नयी पीढ़ी के नौजबान शाही से।

सवाल उठता है…कहते हैं बेटी को मार डालोगे,तो बहु कहां से पाओगे???सोचो किसान को मार डालोगे,तो रोटी कहां से लाओगे???

सम्पन्न लोगों के चबूतरे पर होता था कुंवा 

जिनके चबूतरे पर कुआं हुआ करता था, एक समय में वो लोग बहुत सम्पन्न माने जाते थे। पोस्ट के साथ चस्पा पहला फोटो शाही के एक ऐसे ही ठाकुर परिवार का है। चबूतरे के बीचों-बीच पानी का कुआं अभी भी जिन्दा है। घर के भीतर एक मात्र लहलहाता नींम का पेड़ ही पहरेदार के तौर पर मौजूद है। शायद उसे अभी भी अपनों की वापसी का इंतजार है। फोटो के दोनों ओर खण्डहर में तब्दील होती घर-मड़ैया एक युुग के समाप्त होने की कहानी बयां कर रहे हैं। एक ही घर में दो प्रतिद्वंद्वी मकान अब अपने आप पर इतराते नहीं हैं। दोनों के बीच का अहम भी दफन हो गया है। कच्चे मकान को कभी अपने अनुभवी होने के साथ-साथ पुरातन संस्कृति एवं सभ्यता के प्रतीक होने का गुरूर था। दूसरी ओर ईंटों का मकान अपने आधुनिक होने का दंभ भरता था। आज दोनों के अहम व टकराव धूल में मिल चुके हैं। शायद दोनों अपने आंसुओं को खुद में समेटे अपने अन्त का इंतजार कर रहे हैं। नींम का पेड़ शायद एक आश लिए दोनों मकानों को ढ़ांढस बंधा रहा है। वो हरा-भरा है, उसका खिला रहना दूसरों को जीवन देने के लिए जरूरी भी है। इसलिए वर्षों पहले चहलकदमी खत्म होने और पानी न पाने के क्रम के समाप्त होने के बावजूद नींम का पेड़ बाहर से खुश नजर आ रहा है।

एक बड़ा सा मनहूस ताला दरबाजे पर टंगा अपनी किस्मत को कोस रहा है। शायद वो अपनी प्रिय चाबी की आस छोड़ बैठा है। गम में ताले ने आपने मूल रंग को छोड़ दिया है, वो काला बदसूरत हो गया है। घर के सामने कच्ची सड़क टायल रोड में बदल गई है, पर उन पर चलने वालों की तादात पहले जैसी नहीं है। बिजली का खम्भा प्रश्न कर रहा है, ’’अब तो मैं शहर से चलकर गांव तक आ गया हूँ, अब मुझसे बेरूखी क्यों?’’ मम्मी ने बताया कि यह घर ठाकुरों का है, हमारे रिश्तेदार भी लगते हैं। वर्षों पहले शहर चले गये।

दूसरे फोटो में आप देख रहे हैं कि कड़ीदार कच्चे लेंटर के ऊपर दो मंजिला मकान है। सालों से यहाँ कोई नहीं रहता। पुरानी बनावट ऐसी है कि बिना देख-रेख के भी यह घर दशकों से जस का तस है।

नल हमारी खोखली हो चुकी सरकारी व्यवस्था का है प्रतीक

तीसरे फोटो में देखिये, बस्ती के बीच में लगा सरकारी नल अपने नीचे की जमीन खोता जा रहा है। यह नल हमारी खोखली हो चुकी सरकारी व्यवस्था का प्रतीक भी है। सामने बैठी महिला ने बताया, ’’कई सालों से नल खराब है।’’ किसी ने यह भी बताया कि इस सरकारी जमीन पर किसी पैसे वाले की निगाह है, इसलिए वो आहिस्ता-आहिस्ता इसे धरासायी करना चाहता है। 

वर्षों से है बिकने का इंतजार

अगले फोटो में दीख रहा जर्जर यह मकान सुनारों के मोहल्ले का है। मम्मी ने बताया कि एक समय में यह बिल्डिंग गुलजार रहती थी। यहाँ सोने-चाँदी का बड़ा काम होता था। वर्षों से यह मकान अपने बिकने का इंतजार कर रहा है। यहाँ भी एक पेड़ फिर से चहलकदमी और जीवन की पुनः वापसी की संभावना बयां कर रहा है। यह तो कुछ बानगी भर हैं। पूरी शाही घूमी जाये तो ऐसे अनगिनत मामले आँखों के सामने होंगे। 
आखिर लोग शाही क्यों छोड़ रहे हैं? इस पलायन से कस्बे पर क्या प्रभाव पड़ेगा? आखिर शाही छोड़ रहे लोग कहाँ बस रहे हैं? क्या यह सिर्फ शाही की ही समस्या है? तमाम सवालों पर आगे चर्चा करेंगे।

गाँव में लोगों की जेबें हल्की होती हैं, लेकिन बातें वजनदार

हाँ, एक बात और……… पुरानी कहावत है, ‘‘गाँव में लोगों की जेबें हल्की होती हैं, लेकिन उनकी बातें वजनदार होती हैं।’’, ‘‘गाँव में घड़ी किसी-किसी के पास होती है, मगर समय सभी के पास होता है।’’ मुझे लगा कि मोबाइल ने यहाँ भी घड़ी की कमी को दूर किया है। समय आपस में बात करने, सोचने-समझने के लिए बचा ही नहीं है। इसलिए वजन भी कहीं काफूर हो गया है।

किसी ने कही कहा है……..

इक और खेत पक्की सड़क ने निगल लियाइक और गांव, शहर की वुसअत में खो गया!

पहाड़ का पलायन ज्यादा घातक व विनाशकारी 

पलायन का जिक्र आते ही मुझे अपने राज्य उत्तराखण्ड के वीरान गांव, सूने मकान, चौपट खेत-खलियान, शान्त रास्ते और दूर तक फैली खामोशी लिये सैकड़ों गांवों का मंजर याद आता है। उत्तराखण्ड में पलायन को लेकर मास्साब हर छोटे-बड़े आन्दोलन में हमेशा शरीक रहे। पहाड़ के सीमांत गांव के खाली होने और लोगों के पलायन पर मैंने भी कई बार रिपोर्ट की है। कभी सोचा भी नहीं कि जिस तरह पहाड़ के गांव खाली हो रहे हैं, उसी तरह मैदान के गांव से भी लोगों के शहर जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। कारण कमोवेश एक जैसे ही हैं। लेकिन परिणाम जुदा हैं। मैदान की अपेक्षा पहाड़ का पलायन ज्यादा घातक व विनाशकारी है। बावजूद मैदान के गांव से लोगों के बाहर जाने को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 

उपभोक्तावादी संस्कृति की चकाचौंध ने गांवों को अपनी ओर खींचा

बेतहाशा बढ़ती शहरीकरण व उपभोक्तावादी संस्कृति की चकाचौंध ने गांव व कस्बे को अपनी ओर खींचा है। रोजगार की तलाश भी पलायन का बड़ा कारण है। मैं कई साल बाद इस बार शाही, बरेली अपने पैतृक गांव गया तो मुझे पहली बार मैदान के गांव का खालीपन स्पष्ट तौर पर दिखायी दिया। दर्जनों घरों पर ताला था। जिन घरों पर अभी ताला नहीं लगा है, वहां बच्चे और बुजुर्गों की संख्या ज्यादा थी। नौजवान काम की तलाश में शहरों का रुख कर चुके हैं। तीज-त्योहार पर ही घर लौटना होता है। बड़ा अजीब सा खालीपन देखा मैंने। पीपल की छांव में बैठकर ताश खेलने वालों का झुंड पता नहीं कहां गुम हो गया। 

बात उत्तराखण्ड की। उत्तराखण्ड में खाली हो चुके गांव व जगह को ’’भुतहा’’ कहा जाता है। एक आंकड़े के मुताबिक राज्य में पिछले सात साल में सात सौ से ज्यादा गांव खाली होकर वीरान पड़े हैं। दस साल में लगभग चार लाख लोगों ने पहाड़ से पलायन किया है। 2011 की जनगणना के हिसाब से 968 गांव पूरी तरह से खाली हो चुके थे। 2018 में यह संख्या 1668 हो चुकी है। यह आंकड़ा वास्तव में भयावह है। लेकिन शासन-प्रशासन की काहिली का क्या कहना! तमाम योजनाओं का शोर मचाया जाता है पलायन को रोकने के लिए। राज्य सरकार ने अलग से आयोग भी गठित किया है। लेकिन जमीनी स्तर पर परिणाम शुन्य ही है। एक रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी पलायन रोजगार के कारण हुआ। पलायन का दवाब झेलते-झेलते शहर और महानगर भी बुरी तरह हांफने लगे हैं। शहरी जिन्दगी बद से बदतर हो गयी है। लेकिन लोगों की मजबूरी उस नरकीय जीवन जीने को मजबूर करती है। 

कृषि पर सरकार ने ध्यान देना बंद कर दिया

यूं तो 85 साल पहले कथाकार मुंशी प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास ’’गोदान’’ में पलायन का दर्द जबर्दस्त तरह से उकेरा था, इसके बाद तमाम साहित्यकारों ने अपनी रचना में पलायन का मुद्दा उठाया है। इस आधार पर कह सकते हैं कि पलायन कोई आज की समस्या या प्रक्रिया नहीं है। पुराने समय से इसकी त्रासदी को महसूस किया जा सकता है। 1990 के बाद देश में नयी आर्थिक नीति लागू होने की वजह से औद्योगीकरण पर सरकार का ज्यादा फोकस रहा। उद्योग भी शहरों तक सीमित रहे। कृषि पर सरकार ने ध्यान देना धीरे-धीरे बंद कर दिया। यहीं से गांव से पलायन का सिलसिला तेज हुआ। जो आज विकराल रूप धारण कर चुका है। पूर्व राष्ट्रपति और महान वैज्ञानिक अब्दुल कलाम ने कहा था, ’’शहरों को गांव की ओर ले जाकर ही पलायन रोका जा सकता है।’’ मतलब गांव को ही शहर बनाना होगा, साधन संपन्न बनाना होगा। उनका इशारा गांव को विकसित और रोजगार मुहैया कराने से है, लेकिन अफसोस गांव लगातार बदहाल हो रहे हैं।

कृषि जोत का छोटा होना, प्राकृतिक आपदा, रोजगार व सुविधाओं का अभाव, भेदभाव पूर्ण सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, सड़क की बदहाली, बिजली, पानी का अभाव, जाति व्यवस्था, नगरों की चकाचैंध आदि तमाम कारण हैं गांव से पलायन के। वास्तव में पहाड़ और मैदान में पलायन के कारणों में बहुत हद तक समानता है। स्वरूप और प्रक्रिया अलग हो सकती है। लेकिन पलायन का दर्द एक है। ग्लोबलाईजेशन के इस दौर में जब एक ओर पृथवी को उनमुक्त बाजार में तब्दील किया जा रहा है, तो हमारे गांव, पहाड़, कस्वे, शहर और महानगरों का अस्तित्व कैसे बचेगा? भारत जैसे विकासशील देश में गांव-कस्वे का जिन्दा रहना और फलना-फूलना बहुत जरूरी है। यह कृषि व लघु उद्योग पर फोकस करके ही संभव है।
समाप्त……………..।

-रूपेश कुमार सिंह

09412946162
मैदान के गांव भी हो रहे हैं खाली (भाग-एक)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *