-वीरेश कुमार सिंह
2014 के लोकसभा चुनाव तक तो तुम भी स्वयं मां गंगा जी के समझदार, लाड़ले और मां के प्रति समर्पित बेटा होने की बात करते थे, लेकिन यह चुनाव मां के आशीर्वाद और प्रभु राम की कृपा से जीतकर अब तो तुम मां के कुछ लालची, विलासिता प्रिय बेटे-बेटियों के समूह में फंस गए हो। उन नालायकों की विलासिता के साधन, जैसे अधिक बिजली जुटाने के लिए, जिसे तुम विकास कहते हो, कभी जलमार्ग के नाम से बूढ़ी मां को बोझा ढोने वाला खच्चर बना डालना चाहते हो।
आखिर वही हुआ, जिसकी आशंका थी! गंगा को साफ-सुथरा देखने की इच्छा लिये प्रो0 जी0डी0 अग्रवाल, स्वामी सानंद 111 दिनों के अनशन के बाद इस संसार को छोड़ गए। उनके जाने से गंगा बचाने के अभियान को एक बड़ा आघात तो लगा ही है, लेकिन राजनीतिक दोगलेपन को भी वह जाते-जाते बेनकाब कर गए हैं। अपनी मृत्यु से कुछ माह पूर्व प्रधानमंत्री को सम्बोधित अपने पत्र में उन्होंने लिखा था, ‘‘2014 के लोकसभा चुनाव तक तो तुम भी स्वयं मां गंगा जी के समझदार, लाड़ले और मां के प्रति समर्पित बेटा होने की बात करते थे, लेकिन यह चुनाव मां के आशीर्वाद और प्रभु राम की कृपा से जीतकर अब तो तुम मां के कुछ लालची, विलासिता प्रिय बेटे-बेटियों के समूह में फंस गए हो। उन नालायकों की विलासिता के साधन, जैसे अधिक बिजली जुटाने के लिए, जिसे तुम विकास कहते हो, कभी जलमार्ग के नाम से बूढ़ी मां को बोझा ढोने वाला खच्चर बना डालना चाहते हो।’’ इसी पत्र में उन्होंने इस बात पर भी अफसोस जाहिर किया था कि सरकार से लगाई गई उम्मीदें चार साल में पूरी तरह से धराशायी हो चुकी हैं।
उनकी मौत ऐसे समय में हुई है, जबकि देश और प्रदेश दोनों ही जगहों पर ‘गाय और गंगा’ के लिए जान तक दे देने की बात करने वाले लोग सत्ता में हैं। उनकी मौत डबल इंजन के फेल होने का प्रमाण भी है।
सदियों से गंगा भारतीय समाज में धार्मिक आस्था का केन्द्र रही है। इसके इतर आर्थिक व सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी गंगा का स्थान महत्वपूर्ण है। देश के अधिकांश महत्वपूर्ण व बड़े नगर गंगा के किनारे पर बसे हैं। उपजाऊ भूमि का एक बहुत बड़ा हिस्सा गंगा द्वारा निर्मित व पोषित है।
तमाम जल परियोजनाएं बड़े विनाश का कारण:
गंगा के पतितपावनी होने पर दो राय हो सकती है, पर इस बात पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि यह लाखों-करोड़ों लोगों की जीवन रेखा है। गंगा का जीवन रेखा होना ही गंगा के लिए वर्तमान में अभिशाप सिद्ध हो रहा है। विकास के नाम पर अंधाधुंध नगरीकरण व औद्योगीकरण के साथ-साथ तमाम जल परियोजनाएं बना कर गंगा को अवरुद्ध किया जा रहा है, जो आने वाले समय में एक बड़े विनाश का कारण बन सकता है।
हाइड्रो पाॅवर प्रोजेक्ट ने केदारनाथ आपदा को विकराल रुप प्रदान किया:
गंगा के प्रति चिंता कोई आज का सवाल नहीं है। आजादी के बाद से ही विकास के नाम पर हमने जिस तरह की नीतियों का निर्माण किया, उन्होंने पर्यावरण और नदियों के लिए संकट खड़ा किया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक गंगा नदी में प्रतिदिन 3 करोड़ लीटर से भी अधिक का शहरी व औद्योगिक कचरा डाला जाता है। इसमें खतरनाक प्लास्टिक कचरा भी शामिल है। इसका परिणाम यह हुआ है कि गंगा का पानी हरिद्वार तक आते-आते ही सामान्य से कई गुना अधिक प्रदूषित हो जाता है। आगे बढ़ने पर तो इसमें प्रदूषण की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि यह पीने योग्य तो दूर, नहाने या सिंचाई करने के योग्य भी नहीं रह जाता है। आर्सेनिक जैसे विषाक्त तत्वों की अधिकता के कारण ही गंगा किनारे रहने वाले लोगों में कैंसर व अन्य खतरनाक बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। कमोबेश यही हाल अन्य नदियों का भी है और रही-सही कसर नदी परियोजनाएं पूरा कर दे रही हैं।
2013 में केदारनाथ में आई भयानक आपदा अभी हम भूले नहीं होंगे। इस आपदा के बाद तमाम जांचों व रिपोर्टो में एक बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि इस आपदा की एक बड़ी वजह गंगा का प्रदूषित होना व अवैध खनन है। वन व पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट में भी इस बात को स्वीकार किया गया कि हाइड्रो पाॅवर प्रोजेक्ट ने केदारनाथ आपदा को विकराल रुप प्रदान किया। अभी केरल में आई भीषण तबाही के पीछे भी मानवीय कारक ही जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं।
आखिर विकास है क्या?
विकास के नाम पर नदियों को अवरुद्ध करके बिजली उत्पादन की परियोजनाएं बनाई जा रही हैं, जिनका उद्देश्य पूंजिपतियों को निर्बाध विद्युत उपलब्धता सुनिश्चित कराना है। क्या विकास के नाम पर सरकारों को कुछ भी करने की छूट होनी चाहिए? सवाल यह भी है कि आखिर विकास है क्या? क्या खेतों का सिकुड़ कर कंक्रीट के जंगल में बदल जाना विकास है? क्या नदियों का खत्म हो जाना विकास है? क्या आदिवासियों से जबरन उनकी जमीन और घर छीन लेना ही विकास है? क्या मुख्यधारा में शामिल करने की मुहिम के तहत भोले-lभाले और प्रकृति प्रेमी आदिवासियों को उनकी जड़ों और परम्पराओं से काट देना ही विकास है? यदि हाँ तो मैं चाहुँगा कि इस विकास को चूल्हे में झोंक दिया जाए।
विकास के नाम पर संसाधनों की लूट और दोहन को विकास कह कर स्वीकार कर सकते हैं?
क्या हममें से किसी ने विकास के क्रम में बंदर के बच्चे को हाथी का बच्चा बनते हुए देखा है? क्या विकास के क्रम में गुलाब की कली से सूरजमुखी उगते हुए देखा है? क्या मानव शिशु को भेड़ या बकरी के रुप में विकसित होते हुए देखा है या देख पाएंगे? नहीं न! फिर विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट और उनके अंधाधुंध दोहन को हम कैसे विकास कह कर स्वीकार कर सकते हैं?
वास्तव में यह विकास नहीं विनाश है। यह मुनाफाखोर व्यवस्था द्वारा लिखी जा रही धरती की बदहाली की पटकथा है, जो धीरे-धीरे पूरी पृथ्वी को अपने आगोश में ले लेगी।
(लेखक राष्ट्रीय मासिक पत्रिका प्रेरणा-अंशु के सम्पादक हैं-09927674123)