भाग-7
पूर्वी पाकिस्तान में उच्चजातियों ने मुसलमानों से कम नहीं किया नमोःशूद्रों का शोषणः शिवनाथ विश्वास
-रूपेश कुमार सिंह
पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के कुष्टिया जनपद के दामरदाह ग्राम पंचायत में पैदा हुए 82 वर्षीय शिवनाथ विश्वास विभाजन के बाद 1950 में भारत की सीमा में दाखिल हुए। तब उनकी उम्र 12 साल थी। बचपन से सुनते आये थे कि वे हिन्दुस्तान के बंगाल प्रान्त के बाशिंदे हैं। एकाएक कब वे पाकिस्तानी हो लिए, पता ही नहीं चला। हाँ, पाकिस्तानी से हिन्दुस्तानी होने का सफर आज भी झकझोरता है, डराता है। शिवनाथ जैसे लाखों बच्चों को तब नहीं समझ आया कि क्यों हम अपनी माटी से नाता तोड़ रहे हैं? आज समझ आता है कि विस्थापन क्या बला है? वास्तव में रिफ्यूजी होने का दर्द समझना आसान नहीं है। तब शिवनाथ के गाँव में तो सब कुछ सामान्य था, लेकिन आस-पास के गाँवों से बंगाली (हिन्दुओं) के साथ हिंसा की घटनाओं का शोर उनके गाँव तक पहुँचता रहता था। भय व्याप्त था और गाँव के सियाने लोगों के बीच पूर्वी पाकिस्तान छोड़ने की रायसुमारी का दौर था।
लूट-पाट, हत्या, महिलाओं के साथ जोर-जबर्दस्ती की वारदातों की खबरें गाँव में आग की तरह फैलती थीं। अफवाहें और घटनाएं एक साथ तैरती थीं। तनाव लगातार बढ़ रहा था। सरकारी-प्रशासनिक व्यवस्था पस्त थी और सामाजिक ताना-बाना ध्वस्त हो रहा था। गाँव में आजादी से पहले की शान्ति कहीं काफूर हो गयी थी। पहले लोग जातिगत तौर पर शोषित थे, अब बंगाली(हिन्दू) व मुसलमान के नाम पर मर-कट रहे थे। जनवरी 1950 की एक सर्द रात में लोगों का हुजूम पैदल ही हिन्दुस्तान के बानपुर बाॅडर (जिला नदिया) की ओर बढ़ चला था। इस काफिले में शिवनाथ का परिवार भी शामिल था। शिवनाथ के नन्हे कदम पिता और चाचा के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। कब तक चलना है, कहाँ पाँव थमेंगे? कुछ पता नहीं था।
शिवनाथ ऐसे विभाजन पीड़ित हैं, जिन्होंने अपनी बाल्यावस्था में जातिगत भेद-भाव और शोषण को झेला तथा नजदीक से दमन को देखा। जवान हुए तो पूर्वी पाकिस्तान में अलगाववादी कट्टरपंथी मुसलमानों के अत्याचारों से अपनी दुनिया लुटती हुई देखी। वे वर्तमान में जनपद ऊधम सिंह नगर के बंगाली बाहुल्य क्षेत्र शक्तिफार्म के रतनफार्म नम्बर-दो में रहते हैं। आइए! रिफ्यूजी होने की उनकी दास्ताँ से रू-ब-रू होते हैं-
पैर से उतार सिर पर रखनी पड़ी खड़ांग
शिवनाथ बताते हैं, ‘‘तब मेरी उम्र 10-11 साल की रही होगी। हमारा गाँव नमोःशूद्रों (दलितों) का था। हमें नहीं पता था कि जातिगत भेद-भाव क्या होता है। सियाने लोगों ने इतना बताया, समझाया था कि ब्राह्मण और कायस्त बड़े लोग होते हैं, इनका सम्मान करना चाहिए। यह व्यवस्था बहुत पहले से चली आ रही थी। हमें इसे निभाना है, इतना समझ आता था। बड़े लोग संख्या में बहुत कम थे। गाँव के ऊपरी हिस्से में रहते थे, जिनसे हमारा कोई खास लेना-देना नहीं था। लेकिन उनकी जरूरत का सामान नमोःशूद्र ही पूरा करते थे। उनका राज था। सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि बड़ी जातियों के लोगों के आगे कोई कुछ बोलता नहीं था। बाबा (पिता) सब्जी का काम करते थे। मेरी जिद पर उन्होंने मुझे खड़ांग (लकड़ी की चप्पल) लाकर दी थी। एक दिन बाबा मुझे झिंगेदाह बाजार ले जा रहे थे। उनके सिर पर परवल का टोकरा था। मैं खड़ांग पहनकर चल रहा था। गाँव के चैक पर ब्राह्मण और कायस्तों के लड़कों ने हमें घेर लिया। लगे देने गन्दी-गन्दी गाली। बोले, ‘‘शर्म नहीं आती हमारे सामने खड़ांग पहनते हुए? तुम नीच हो और यह मजाल? अभी मजा चखाते हैं।’’ बाबा ने मेरे पैर से खड़ांग उतार लीं और अपने सिर पर रखकर उनसे माफी माँगी। तब जाकर उन्होंने हमें आगे जाने दिया। मैं उस दिन बहुत रोया। आज भी वो घटना याद करके मन परेशान हो जाता है और आँखों से पानी बहने लगता है।’’
शिवनाथ बताते हैं कि 1947 से पहले मुसलमान बंगालियों पर हावी नहीं थे। बल्कि बंगालियों का शोषण बंगाली ही करते थे। नमोःशूद्रों पर ब्राह्मण और कायस्तों का सिक्का चलता था। मुसलमानों से कम अत्याचारी नहीं रहे बंगाली उच्चजातियों के ठेकेदार। वे बताते हैं कि पूर्वी पाकिस्तान में उनका गाँव दामरदाह तीन ओर से नदियों से घिरा हुआ था। दायें तरफ चूर्नी नदी तो दूसरे छोर पर पद्मा नदी बहती थीं। पाबना और जैशोर जिले की सीमा उनके गाँव से लगती थी। गाँव अपेक्षाकृत बड़ा था। बड़ी तादाद में नमोःशूद्र थे। ब्राह्मण और कायस्तों की संख्या बहुत कम थी, लेकिन वे हर मामले में दूसरों से पावरफुल थे। गाँव के एक छोर पर कुछ मुसलमानों के भी घर थे। पंचायत से लेकर खेत तक सभी पर बड़ी जातियों का कब्जा था। गाँव में जूनियर हाईस्कूल था, लेकिन बड़ी जातियों के असरदार लोग नमोःशूद्रों के बच्चों को स्कूल जाने से रोकते थे। बोलते थे, ‘‘एक टाका लो और बच्चों को खेत में काम करने भेजो। स्कूल भेजकर कोई भला नहीं होगा, रोटी नहीं मिलेगी।’’
शिवनाथ बताते हैं कि उनके साथ भी ऐसा हुआ था। बाबा जिसके खेत में काम करते थे, उन्होंने मुझे स्कूल न भेजने का दवाब बाबा पर बनाया था। लेकिन मेरा मन पढ़ाई में लगता था। इसलिए मैं स्कूल जाता रहा। हालाँकि वहाँ भी हमारे साथ भेद-भाव होता था। बच्चोें में भी फर्क करके देखा जाता था। ब्राह्मणों का बोलबाला था। हर अनुष्ठान एवं पूजा-पाठ के बाद उन्हें दान-दक्षिणा दी जाती थी। यह क्रम आज भी जारी है। हालाँकि जातिवाद के खिलाफ मतुआ आन्दोलन गाँव में भी दस्तक दे चुका था, लेकिन हकीकत में लोग बड़ी जातियों के लोगों से डरते थे। वे बताते हैं कि ब्राह्मण भी तीन भाग मे बंटे हुए थे। जो ब्राहमण सिर्फ ब्राह्मणों के घर अनुष्ठान कराते थे, वे कुलीन ब्राह्मण माने जाते थे। इसमें चटर्जी, बनर्जी, मुखर्जी आते हैं। दूसरे स्तर पर वे ब्राह्मण आते थे जो कायस्तों के घर काम कराते थे। इसमें चक्रवर्ती आते हैं। घोषाल, सान्याल आदि तीसरे स्तर के ब्राह्मण माने जाते थे। ये शेष लोगों के घर पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड कराते थे।
शिवनाथ बताते हैं कि आजादी की लड़ाई में उनका गाँव भी साथ था। सहाबुर रहमान आजादी के नेता थे। उनके भाई को अंग्रेजों ने गोली मार दी थी। विभाजन से पहले बंगालियों का मुसलमानों से अच्छा तालमेल था। आपस में सामंजस्य गहरा था। कोई विवाद नहीं था। बल्कि बंगाली नमोःशूद्रों और मुसलमानों में काफी हद तक हर स्तर पर समानता थी। वे बताते हैं कि विभाजन की चिंगारी ने सबकुछ बदलकर रख दिया। अमन-चैन को खाक कर दिया। अब मुसलमान उग्र होने लगे थे। अलगाववादी ताकतें हिंसा पर उतारू थीं। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था। कुछ भी पहले जैसा नहीं बचा था। वे बताते हैं कि उनके गाँव में कोई हिंसात्मक घटना मुसलमानों की ओर से नहीं हुई थी। बल्कि गाँव के मुसलमान बंगालियों को भारत आने से रोक भी रहे थे। लेकिन फ़िजा पूरी तरह से दूषित हो चुकी थी। साम्प्रदायिक नफरत चरम पर पहुँच चुकी थी। अन्य जनपदों में घट रही घटनाएं लोगों को विचलित कर रहीं थीं।
1949 तक गाँव से किसी भी बंगाली ने बाॅडर का रुख नहीं किया था। जनवरी 1950 को 75 परिवारों का पहला जत्था एक साथ गाँव छोड़कर भारत आने के लिए निकला। वे बताते हैं कि उनका गाँव पूर्वी पाकिस्तान के दर्शना बाॅडर के नजदीक ही था। रात में लोग पैदल ही बाॅडर की ओर चल दिए। सभी ने पाकिस्तान सरकार से माइग्रेसन प्रमाण पत्र बना रखा था, इसलिए बाॅडर पर इन्हें नहीं रोका गया। दर्शना बाॅडर से ट्रेन से बानपुर (भारत बाॅडर) आये। बानपुर में बंगाली शरणार्थियों का सैलाब था। पैर रखने की जगह नहीं थी। व्यवस्था के अनुसार वहाँ से सभी को सियालदह रेलवे स्टेशन लाया गया। दाल-भात और खिचड़ी खाकर कई दिन खुले आसमान के नीचे हमने सियालदह में गुजारे। बाद में चैबीस परगना जनपद के अशर्फावाद ट्रांजिट कैम्प लाया गया। यहाँ भारत का सिटीजन कार्ड बना। कैम्प की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी। सुविधाओं का अभाव था। हम नौ साल इसी कैम्प में रहे। यहीं 9वीं तक पढ़ाई की।
शरणार्थी शिविर एक दिन छोड़ना होगा, इसकी जानकारी थी, लेकिन सरकार कहाँ पुनर्वासन करेगी, यह तय नहीं था। इसको लेकर हमेशा आशंका बनी रहती थी। पता नहीं, नयी जगह कैसी होगी? वहाँ जीवन कितना जटिल होग? तमाम सवाल मन में उठते थे। नैनीताल क्षेत्र में ठंड और बाघ के डर से कोई आना नहीं चाहता था। न चाहने के बावजूद हमें नैनीताल की तराई में भेजा गया। दिसम्बर 1960 को हावड़ा स्टेशन से हमने ट्रेन का सफर शुरू किया। लखनऊ, बरेली, किच्छा होते हुए कई दिनों की यात्रा के बाद हम लोग सितारगंज पहुँचे। सितारगंज के हाथीखाला में कई दिन यूँ ही पड़े रहे। बाद में रतनफार्म भेजा गया। यहाँ प्रशासन ने झोपड़ी बना रखी थीं। एक झोपड़ी में एक परिवार टिका दिया गया। कुछ दिनों बाद लाटरी सिस्टम से पाँच-पाँच एकड़ जमीन का आवंटन हुआ। जमीन में पानी भरा रहता था। खेती करना संभव न था। सरकारी मदद भी जरूरत के हिसाब से नहीं मिली। वे कहते हैं कि जिस जमीन को खेती योग्य बनाने में उन्होंने और उनके बुजुर्गों ने पूरी जिन्दगी बसर कर दी, उस जमीन पर मालिकाना हक आज तक नहीं मिल सका है। यह बंगाली विस्थापितों के साथ सबसे बड़ा धोखा है।
वे बताते हैं कि इसी साल रतनफार्म में आग लग गयी। सभी झोपड़ी जलकर स्वाह हो गयीं। जान-माल का बड़ा नुकसान हुआ। कई दिनों तक प्रशासन ने कोई सुध नहीं ली, जिससे आहत होकर शरणार्थी आन्दोलन पर उतर आये। प्रशासन और पुनर्वासन विभाग से भीषण टकराव भी हुआ। उस समय चक्रधर मल्लिक, बंकविहारी गोल्दार, सुरेन्द्र नाथ विश्वास समाज के अग्रज थे। चक्रधर मल्लिक अकेले युवा थे, जिन्हें तब अंग्रेजी आती थी। इसलिए समाज में उनका बड़ा सम्मान था। शिवनाथ बताते हैं कि तब लोगों के पास काम नहीं था। खेती करना बहुत जटिल था, लेकिन उसके सिवा कोई दूसरा रास्ता भी न था। कड़ी मेहनत करने के बाद भी जमीन में खाने भर को अनाज पैदा नहीं होता था। जो फसल होती भी थी, उसे जंगली जानवर तबाह कर देते थे। 10 वीं तक पढ़े होने के कारण उन्हें पोस्ट मास्टर की नौकरी मिल गयी। पोस्ट आफिस रतनफार्म से दूर था। पैदल चलने के अलावा कोई दूसरा साधन नहीं था। चारों ओर जंगल था। दिन में भी बाघ के दर्शन हो जाते थे। वे बताते हैं कि एक दिन पोस्ट आफिस जाते वक्त रास्ते में बाघ दिखा और वे बेहोश हो गये। बाघ ने उन्हें नुकसान तो नहीं पहुँचाया, लेकिन कई दिनों तक बुखार नहीं उतरा। इसके बाद माँ ने दोबारा नौकरी करने नहीं दी। गाँव में ही बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।
शिवनाथ बताते हैं कि एक शरणार्थी का जीवन कितना कष्टदायक और अपमानजनक होता है, इसका अंदाजा कोई और नहीं लगा सकता। बंगाली समाज की आज की पीढ़ी भी अपने बुजुर्गों का दर्द नहीं महसूस कर सकती। भारत सरकार और पुनर्वासन विभाग ने काफी कुछ मदद की, लेकिन बहुत कुछ करना बाकी रहा। नतीजा, आज भी बंगाली शरणार्थी अपना अस्तित्व खोज रहे हैं। वे कहते हैं कि उनकी जमीन तक उनकी नहीं है। इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी? घुसपैठिया होने का टैग हमेशा लगा रहता है। इस दंश को हम आज भी झेल रहे हैं। शिवनाथ का दुःख है कि आज भी शक्तिफार्म क्षेत्र अति पिछड़ा है। न सड़क ठीक हैं, न अन्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। जमीन पर मालिकाना हक तक नहीं मिला है। शरणार्थी समस्या आज भी बनी हुई है। बंगाली रिफ्यूजियों को सम्मानजनक स्थिति में न पहुँचा पाना सरकारी विफलता है।
बाबा के घर को जलते और पिया के घर को उजड़ते देखा हैः फूलमाला सरकार
92 साल की फूलमाला सरकार मोटे तल के चश्मे के सहारे ठीक से देख तो पाती हैं, लेकिन वे ऊँचा सुनती हैं। मैं उनसे उनके पैतृक देश पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) पर बात करना चाहता हूँ, यह जानकर वे एकाएक जोर-जोर से हँसने लगती हैं। मैं कोई सवाल करता, उससे पहले हँसते हुए उन्होंने मुझपर ही सवाल दाग दिया, ‘‘ऐन की होबे जय बांग्लार कोथा बोले? आमादेर एक बार देश छाड़ार पोरे आबार जाबा होलो न। निजीर देशे जाती पारलम न।’’ (अब क्या होगा जय बांग्ला की बात करके? अपना देश छोड़कर जाने के बाद दोबारा वहाँ जाना ही नहीं हुआ।) यह कहते-कहते फूलमाला भावुक होने लगती हैं। उनकी आँखें भरने लगी हैं। चेहरे की सिलवटें और आँखों की नमी मुझसे बिन कहे यही पूछ रही हैं कि मैं क्यों उनकी बीत चुके जीवन और पीड़ा को कुरेद रहा हूँ? मेरे कहने पर उन्होंने अपने अतीत में लौटना शुरू कर दिया है।
आपने अपना देश क्यों छोड़ा?
फूलमाला बताती हैं, ‘‘आजादी से पहले हमारा जीवन अच्छा था। अपना देश हर किसी को प्यारा होता है। हमें भी था, आज भी है। अपने देश की बहुत याद आती है। कोई तो ऐसी सरकारी व्यवस्था होती कि मरने से पहले एक बार बांग्लादेश जा पाती! अपनी माटी से मिल पाती। खैर, क्या कहें, इस देश में भी बहुत प्यार मिला है। नया जीवन मिला।’’ फूलमाला आज भी अपने पैतृक गाँव और बांग्लादेश को बहुत याद करती हैं। वे बताती हैं कि विभाजन से पहले उनकी शादी हो चुकी थी। तब तक सब कुछ अच्छा-अच्छा था। हम गरीब परिवार से थे, इसलिए माँ-बाबा और बड़े भाई-बहन दूसरे के खेतों में मजदूरी करते थे। छोटी लड़कियां और बुजुर्ग घर में बीड़ी और चटाई बनाने का काम करते थे। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई चल रही है, इसकी जानकारी हम बच्चों को भी थी। लेकिन आजादी के बाद देश बँट जाएगा, लोग छूट जायेंगे, अपना गाँव और देश छूट जाएगा, इसका इल्म बिल्कुल भी नहीं था। आपसी मेल-मिलाप व शान्ति खत्म हो जाएगी और एक साथ रहने वाले लोग धर्म के आधार पर मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे, ऐसा अंदेशा बिल्कुल भी नहीं था।
वे कहती हैं कि अपना देश छोड़ना आजादी है, तो ऐसी आजादी से तो गुलाम रहना ही अच्छा था। 15 अगस्त, 1947 से कुछ माह पहले ही चर्चा होने लगी थी कि देश हिन्दुस्तान-पाकिस्तान दो हिस्सों में बँट जाएगा। गाँव में तनाव बढ़ने लगा था। हिंसक घटनाएं होने लगी थीं। उसी साल मेरी शादी सुखलाल सरकार से हुई। उम्र 16-17 रही होगी। बड़े बेटे सुशील सरकार का जन्म पूर्वी पाकिस्तान में ही हुआ था। उसे डेढ़ वर्ष का लेकर हमने भारत में पनाह ली थी। फूलमाला सरकार पूर्वी पाकिस्तान के फरीदपुर जिले के गोपालगंज थाना क्षेत्र ग्राम गोशालकांदी की हैं। वे बताती हैं कि उनका गाँव ज्यादा बड़ा नहीं था। नमोःशूद्रों के अलावा अन्य लोग न के बराबर थे। गाँव में कोई टकराव नहीं था। पर विभाजन के बाद गाँव की फ़िजा बिगड़ गयी। अलगाववादी मुसलमान आक्रामक होने लगे थे।
वे बताती हैं कि पड़ोस के दबंग मुसलमानों ने तीन बार बाबा की झोपड़ी में आग लगा दी थी। हमने अपने बाबा के घर को जलते हुए देखा है। ऐसा क्यों हो रहा है? चारों तरफ आगजनी और हिंसा क्यों हो रही है? इसका जवाब हमें आज तक नहीं मिला। शादी के बाद तीन साल मैं ससुराल में रही। इसके बाद वहाँ से भारत के लिए पलायन करना पड़ा। ससुराल में एक रात चर्चा हो रही थी, ‘‘कभी भी मुसलमान उनके गाँव पर हमला बोल सकते हैं। जितना जल्दी हो, गाँव खाली कर देने में ही भलाई है।’’ दो-चार रोज बाद हम लोग पैदल ही गाँव से बाॅडर के लिए निकल लिए। गोद में डेढ़ साल का बेटा था। पेट में एक बच्चा था, लेकिन वो रास्ते में ही नष्ट हो गया। बाबा के बाद पिया के घर को भी उजड़ते हुए देखा है। कुछ परिजन वहीं रह गये, जिनसे दोबारा कभी मुलाकात न हो सकी। परिवार के सदस्य भी अलग-अलग हो गये। मैं आखिरी बार अपने माँ-बाबा से भी नहीं मिल पायी। उन्हें बिना सूचना दिए ही हम भारत आ गये। वे बहुत तकलीफदेह दिन थे। जीवन जीना कड़ी चुनौती था।
बानपुर बाॅडर से हम भारत में दाखिल हुए। इस पार आकर हमारा खौफ कुछ कम हुआ। प्रशासन ने खाने-पीने और जरूरत की चीजें उपलब्ध करायीं। लेकिन अब आगे क्या होगा, इसकी चिन्ता सताए जा रही थी। तकरीबन आठ साल अशर्फाबाद रिफ्यूजी कैम्प में रहे। 1960 में सरकार ने रतनफार्म, शक्तिफार्म में बसाया। वे बताती हैं कि उनका जीवन भी लाखों बंगाली शरणार्थियों की तरह भयंकर तकलीफ और अभाव में बीता। वे दिन आज भी रुला देते हैं। रतनफार्म नम्बर-दो आकर पाँच एकड़ जमीन तो मिली, लेकिन उस पर फसल पैदा करना बड़ी कसरत था। खेत मे काम करने के लिए ज्यादा सदस्य चाहिए होंगे, इसलिए उनके 3 लड़के और 4 लड़कियां यहाँ आकर पैदा हुईं। तब बच्चे मरते भी बहुत थे, इसलिए भी लोग ज्यादा बच्चे पैदा करते थे।
फूलमाला बताती हैं कि शक्तिफार्म-रतनफार्म में एक साथ बड़ी तादाद में बंगाली गाँव बसे। इससे कुछ अपनापन जैसा लगने लगा। बंगाल के नातेदार-रिश्तेदार तो ज्यादा नहीं मिले, लेकिन बंगाली समाज के एक जगह मिलने से नयी उम्मीद जगी। मैं बच्चों को सँभालते हुए खेत का काम करती थी। फावड़े से मिट्टी काट-काटकर हमने जमीन तैयार की। कभी-कभी सरकार की ओर से ट्रैक्टर जमीन जोत देते थे, लेकिन क्यारी और मेड़ बनाने का काम हम दोनों पति-पत्नी मिलकर ही करते थे। बहुत बार चूल्हा नहीं जलता था। चीड़े-मूड़ी खाकर ही रात बितानी होती थी। वे कहती हैं कि एक महिला के लिए ऐसी स्थिति और भी भयावह और दयनीय होती है। अब मेरी उम्र का कोई बचा नहीं है, लेकिन बहुत सारे अपने लोगों को मैं जीवन में दोबारा नहीं देख पायी।
शाम ढल रही है। मौसम में ठंडक बढ़ने लगी है। मैं अभी फूलमाला सरकार से और बात करना चाहता था, लेकिन उनका स्वास्थ्य इसके लिए हमें इजाजत नहीं दे रहा था। मैं उनसे विदा लेना चाह रहा था, लेकिन उनकी स्मृतियाँ शब्दों के माध्यम से लगातार उभर रही थीं। वे बताती हैं कि रतनफार्म में जमीन के ऊपर पानी बहता था। बाढ़ का पानी तीन माह तक खेत को खाली नहीं करता था। मचान बनाकर हमें ऊँचे स्थान पर रहना होता था। बंगाली समाज के लोग यहाँ की स्थिति से वाकिफ नहीं थे। तराई में जमने और समझने में कई दशक लग गये। लेकिन समाज के भीतर से विस्थापन का डर आज तक नहीं गया है। महिलाओं ने विस्थापन की पीड़ा के साथ-साथ अपमान भी झेला है।
वे कहती हैं कि बांग्लादेश उनका मायका है और भारत ससुराल बन गया है, लेकिन यह ऐसा विभाजन है, जिसने बच्चों को अपने मायके से सदा के लिए जुदा कर दिया।
-रूपेश कुमार सिंह
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