उत्तराखण्ड में इन दिनों हाईकोर्ट मसला है। नेता, वकील, बुद्धिजीवि, व्यापारी, छात्र, नौजवान, आम लोग हाईकोर्ट के पीछे पड़े हैं। मतलब सबकी जुबान पर हाईकोर्ट ही हाईकोर्ट है। जैसे मानो बाकी मुद्दे सब खत्म हो गये हों, अब सारी लड़ाई हाईकोर्ट को अपने पाले में शिफ्ट कराने की रह गयी है। जंगलों में आग जल रही है तो क्या? लोग जलकर मारे जा रहे हैं तो क्या? चारधाम यात्रा अव्यवस्थाओं की भेंट चढ़ गयी है तो क्या? बदइंतजामी के कारण बाहर से आने वाले पर्यटक चिल्ला चिल्ला कर उत्तराखण्ड हाय-हाय के नारे लगा रहे हैं तो क्या? उत्तराखण्ड सरकार ने तो राज्य के लोगों को हाईकोर्ट और कुमाऊँ-गढ़वाल की छीना झपटी की महाबहस में उलझा रखा है। उत्तराखण्ड पृथ्क राज्य की साझा लड़ाई लड़ने वाले लोग भी क्षेत्रवाद की आंधी में उड़ चले हैं। कुमाऊँ से हाईकोर्ट चला गया तो क्या नुकसान हो जाएगा यहां के लोगों का? गढ़वाल में शिफट हो गया तो वहां के लोगों को क्या मिल जाएगा?, इस विषय पर तीखी बहस छिड़ी हुई है। हाईकोर्ट पर लड़ाई सिर्फ मण्डलों तक सीमित नहीं है। पहाड़ बनाम मैदान भी होने लगा है। भावर के लोग अपना अलग राग अलाप रहे हैं। हर कोई चाहता है कि हाईकोर्ट उसके इलाके में रहे। सवाल उठता है कि आम लोगों को कितना काम पड़ता है हाईकोर्ट से? जो उसके लिए जनमत संग्रह तक कराया जा रहा है। वैसे राज्य के मामलों में वहां की जनता की राय लेना अच्छी पहल है, लेकिन यह हर गंभीर मसले पर होनी चाहिए। आम जनता से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनता से कोई रायशुमारी नहीं की जाती है, बल्कि सरकार अपने फैसले थोपती रही है। अब बात हाईकोर्ट की है तो सरकार चुप है। उत्तराखण्ड में न्याय का मंदिर स्वयं अपने लिए न्याय मांग रहा है। हाईकोर्ट नैनीताल में रहे या ऋषिकेश चला जाए। हल्द्वानी में बने या ऊधम सिंह नगर में। क्या फर्क पड़ता है? क्या हाईकोर्ट शिफ्टिंग से कोर्ट की कार्यप्रणाली में कोई बदलाव आएगा? लंबित मामलों को निपटाने में तेजी आएगी? क्या माननीय जजों की संख्या में इजाफा होगा? कुछ भी मूलभूत फर्क पड़ेगा? जवाब न में ही मिलेगा। तब नाक का सवाल बनाकर उत्तराखण्ड को फिर से कुमाऊँ-गढ़वाल की तलबार पर क्यों पेना किया जा रहा है।
सन 2000 में उत्तराखण्ड अलग राज्य बनने के बाद पहली बार एक ऐसे मुद्दे ने तूल पकड़ लिया है, जिससे राज्य बनने से पहले सदियों से चले आ रहे कुमाऊँ-गढ़वाल विवाद ने नए सिरे से जन्म ले लिया है और यह विवाद दावानल जैसा दहकने लगा है। राज्य बनते वक्त उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून व हाईकोर्ट नैनीताल में बनाया गया। तब भी इस पर आम सहमति नहीं थी। राज्य आंदोलनकारी गैरसैंण को प्रदेश की राजधानी चाहते थे और नैनीताल एक पर्यटक स्थल है, लिहाजा हाईकोर्ट को दूसरी जगह बनाने के पक्ष में थे। नैनीताल से हाईकोर्ट शिफ्टिंग का मसला लम्बे समय से चल रहा है। हल्द्वानी-काठगोदाम में गौलापार हाईकोर्ट शिफ्ट होना तय भी था जिसके लिए जमीन भी चुन ली गई थी, लेकिन मुख्य न्यायाधीश रितु बाहरी ने गौलापार में अरण्य भूमि का हवाला देकर वहां हाईकोर्ट के स्थानातंरण के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। साथ ही हाईकोर्ट की सर्किट बेंच ऋषिकेश आईडीपीएल में शिफ्ट करने की बात कह दी। इसके साथ ही बखेड़ा शुरू हो गया। अब कुमाऊँ में ही हाईकोर्ट रखने के लिए आन्दोलन शुरू हो गया है। गढ़वाल में हाईकोर्ट का स्वागत किया जा रहा है। वहां भी लोग समर्थन में उतर रहे हैं। तराई ऊधम सिंह नगर में भी हाईकोर्ट शिफ्ट करने लिए कवायत शुरू हो गयी है। इस बीच नैनीताल से हाईकोर्ट शिफ्ट करने के मुद्दे पर लोग अपनी राय माननीय हाईकोर्ट की वेबसाइड पर भी दर्ज करा रहे हैं। राय दर्ज कराने की अंतिम तिथि 31 मई 2024 है। अब सवाल उठता है कि इस रायशुमारी के नतीजे के मुताबिक क्या हाईकोर्ट को शिफ्ट किया जाएगा या स्थानांतरण टल जाएगा। अपने पक्ष में रायशुमारी का नतीजा नहीं आया तो लोग क्या करेंगे? क्या इससे कुमाऊँ गढ़वाल विवाद खत्म हो जाएगा या और बढ़ जाएगा। इस मामले में पहाड़ के अलावा तराई भावर की क्या भूमिका रह जाएगी। यह बेहद पेंचीदा मामला बनता जा रहा है। रायशुमारी के लिए किसी स्थान का उल्लेख नोटिस में नहीं है, सिर्फ अन्यत्र शब्द का इस्तेमाल है। तो क्या भावर या तराई में भी हाईकोर्ट शिफ्ट होने की संभावना है? खण्डपीठ के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने कोर्ट मंे विशेष अनुमति याचिका दायर कर दी है। अब यह मामला आंदोलन तक सीमित नहीं है। कानूनी लड़ाई भी शुरू हो गई है। इस कानूनी लड़ाई का नतीजा आखिर क्या होगा? कुमाऊँ के लोग जहाँ गढ़वाल में हाईकोर्ट शिफ्ट करने का विरोध कर रहे हैं वहीं वे ऊधम सिंह नगर में हाईकोर्ट की शिफ्टिंग की माँग करने वालों की खिलाफत भी कर रहे हैं। क्या ऊधम सिंह नगर के लोग उत्तराखण्डी नहीं हैं? पहले से मैदान और पहाड़ा के बीच बनी खाई के और ज्यादा गहराने का अंदेशा है। नैनीताल हिल स्टेशन है। वहाँ जितनी सर्दी पड़ती है, उससे कहीं ज्यादा महंगाई की मार लोगों पर पड़ती है। पहाड़ी, गैर पहाड़ी सभी के लिए नैनीताल हाईकोर्ट जाना बेहद खर्चीला है। नैनीताल की भूगर्भीए संरचना और भू पास्थितिकी जब पयर्टकों की भीड़ को संभालने लायक नहीं है तो वहाँ हाईकोर्ट होने का औचित्य क्या है? जंगलों की आग नैनीताल तक पहुँचने लगी है। नैनी झील का अस्तित्व गहरे संकट में है। वहाँ भूस्खलन भी अक्सर होते रहते हैं। इन्हीं कारणों से होईकोर्ट नैनीताल से गौलापार शिफ्ट करने का प्रस्ताव था। जिसका ऋषिकेश पेंच फंसने से मामला विकराल हो गया है। कारोबारी हितों को छोड़ दे तो नैनीताल के लोग यह मानते हैं कि हाईकोर्ट जैसी चहल कदमी वाली संस्थाएं नैनीताल की सेहत के लिए ठीक नहीं हैं। लेकिन अब यह मामला नैनीताल तक सीमित नहीं है। यह कुमाऊँ बनाम गढ़वाल, पहाड़ बनाम तराई में व्यापक होता जा रहा है। यह उत्तराखण्डी असमिता के हित में नहीं है। इस पर गहन चिंतन मंथन करने की आवश्यकता है। भाजपा और सरकार मौन साधे हुए है, वहीं कंाग्रेस भी इसपर कुछ कहने से बच रही है। हाईकोर्ट नैनीताल से शिफ्ट हो, इस बात पर सबकी सहमति है, लेकिन कहां जाए, इस पर तलबारे खिंची हुई हैं।