अभिवादन
एक जने ने उसके हाथों में तसलीमा नसरीन की पुस्तक ‘आमार मेयेबेला’ थमा दी थी। एक जने ने उसको कहा था, याद रखना, घर के सारे काम-धाम करने के बाद आशापूर्णा देवी रात को जब घर के सभी लोग सो जाया करते तब चुपचाप लिखती थीं। छह-सात क्लास तक की पढ़ाई करनेवाले उन हाथों में कलम और कॉपी देकर एक जने ने उसको कहा था, इस कॉपी में तुम अपनी जीवन-कहानी लिखोगी। शुरू-शुरू के उसके लिखे हुए को पढ़कर एक जने ने कहा था, यह तो एने फ्रैंक की डायरी की तरह है! एने फ्रैंक? कौन है वह? मालूम नहीं। फिर भी एक जने ने उसे कहा था, यह बात किसी भी दिन मत भूलना कि भगवान ने इस पृथ्वी पर तुम्हें लिखने के लिए भेजा है।
वह ठीक समझ नहीं पाती कि ऐसा भला क्या है उसके जीवन में या उस जीवन के बारे में उसके लिखे हुए में, जो उन लोगों को इतना अच्छा लगा। ‘मेरी लिखावट भी खराब है और लिखने में भूलें इतनी जिसका कोई ठिकाना नहीं! फिर भी उन लोगों को अच्छा लगा है। मैंने तातुश से पूछा, इसमें इतना अच्छा लगने का क्या है? तातुश ने कहा, यह तुम नहीं समझोगी। मैंने कहा, सचमुच ही मैं नहीं समझ पाती। भगवान ने समझने की क्षमता ही नहीं दी मुझे।’
वैसे उसकी आखिर वाली बात सही नहीं है। उसका लिखा हुआ क्यों किसी को अच्छा लगता है, यह समझने की क्षमता उसके भीतर न होना ही संभव है, न होना अच्छा भी है, मगर अपनी स्वच्छ, सहज दृष्टि से चारों तरफ के जीवन को वह कितनी अच्छी तरह समझती है. भला-बुरा बूझती है और साहस के साथ उसके सामने खड़ी हो सकती है, इसकी छाप विस्मयकर इस किताब के पन्ने पन्ने पर बिखरी पड़ी है।
अवहेलित माँ ने अचानक उसके हाथों में दस पैसे का सिक्का थमा दिया था और पिता के घर से एक दिन लापता हो गई। पिता और विमाता की लांछनाओं के बीच वह बड़ी होती रही। पढ़ने-लिखने की दुनिया उसको काफी अच्छी लग रही थी। मगर स्कूल जाने का सुख भी ज्यादा दिनों तक उसे बदा न था। तेरह साल की उमर में छब्बीस साल के एक अज्ञात कुलशील युवक से उसका विवाह हो गया। उसके बाद, साल बीतते न बीतते छोटी उम्र में गर्भधारण, एक के बाद एक तीन बच्चे-बच्चियाँ। फिर उसके बाद या कहा जाय तो उसके बहुत पहले से ही स्वाभाविक रूप से पति के हाथों पिटते रहते और अपमानित होते दिन काटना।
आखिर क्यों इतना अत्याचार सहना होगा? किसी नारी मुक्ति आंदोलन की बातें उसे नहीं मालूम, इब्सन को या ‘स्त्री का पत्र’ पढ़ना नहीं हुआ उसका। तब भी ‘पति के घर में रहकर कितना जो सुख है, यह जानना मेरा हो गया है’ सोचकर अपने तीन बच्चों को लेकर वह निकल पड़ती है स्वावलंबन की खोज में। ‘मैं अकेले बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा कर सकती हूँ या नहीं’ इसे वह आजमा लेना चाहती है। हितैषियों के तरह-तरह की चिंताएँ प्रकट करने पर सहज ढंग से वह कहती, ‘जिनके पति नहीं, वे क्या जिंदा नहीं हैं?’
लेकिन यह बात इतनी सहज नहीं। क्या करेगी वह ? काम कहाँ है भला, किस कदर अपने बच्चों को बचाएगी? अनजाने शहर में भटकते-फिरते उसकी भेंट एक ‘काजेर मेये’ (घरेलू काम-काज करने वाली) के साथ होती है जो कहती है, ‘घर के काम करो, मेरी तरह।’ नौकरानी? पल भर के लिए वह हिचक जाती है। परिवार की इज्जत ? वह खाक में न मिल जाएगी? माना कि बाबा को मेरा खयाल न हो, मगर ‘मेरे बाबा को सभी हालदारबाबू, हालदारदा बोल के पहचानते हैं। वे लोग सुनेंगे तो क्या सोचेंगे?’ सुनकर षष्ठी की माँ ने कहा था, ‘बाप की नाक की चिंता करने जाएगी तो तुझे भूखे मरना पड़ेगा।’
‘मैं काम करूँगी।’ राजी हो जाती है वह लड़की। उसके बाद इस घर-उस घर का अपमान झेलते हुए वह एक अलबेले आश्रय में पहुँचती है, संवेदना और मानवीयता से भरे एक आत्मीय मंडल में। साहब नहीं, नहीं, घर के गृहस्वामी ने उसको कहा कि वह उन्हें ‘तातुश’ बोले क्योंकि बाबू उनके बेटे उन्हें यही बोलते हैं। उन्होंने उसको कह दिया है, ‘तुम इस घर की लड़की हो। कभी भी यह मत सोचना कि तुम यहाँ एक काम करने वाली हो।’
काम करते-करते अवसर के वक्त लिखी गई उस घर की लड़की की यह किताब है, हमारे इस देश में बहुतों की तरह ही किसी घर की लड़की। ‘किसी ने मुझे दीदी नहीं कहा, इसकी वेदना उस लड़की के मन के भीतर जमी रहती है, अत्याचारी पति के चेहरे को यादकर उसके प्रति कभी-कभी उसे ‘माया’ भी होती है, परिवार से अलहदा होकर भी सबकी उसे फिक्र लगी रहती है, घर की वही लड़की अपने मामूली से जीवन की बातें खालिस अपनी भाषा में कहती है ‘छाती की हड्डियाँ सब काँप रही हैं’, ‘शरीर तब मानो पानी हो गया था’, ‘खुशी के मारे गिरे जा रही हूँ’, ‘कितनी तरह की माया उपजती है’, ‘वह मैं नहीं बोलूँगी, वह भारी शर्म की बात है’, ‘तब भी बेबी, बेबी के शैशव को प्यार करती है… बेबी अपने शैशव को चाटती है।’
हाँ, इस लड़की का ही नाम बेबी हालदार है। तीन अध्यायों वाली यह उसकी जीवनकथा है। कथा कहते-कहते, आज के किसी कला-कौशल से बिलकुल अनभिज्ञ वह किसी भी पल ‘मैं’ से ‘वह’ में चली जा सकती है। पल भर में ही वह खुद को देखने लगती है, खुद से बाहर जाकर । बेबी को देखना चाहती है खुद बेबी और देख भी पाती है।
इस बेबी की आत्मकथा पढ़ते-पढ़ते उसी की भाषा में कहा जा सकता जीवन के प्रति बड़ी माया जगती है। और इसके साथ ही तातुश की भी याद हो आती है। बेबी हालदार की सृष्टि है यह किताब और बेशक तातुश की सृष्टि है यह नवजात बेबी हालदार। दोनों के प्रति हम अपनी मुग्धता प्रकट करते हैं।