प्रधानमंत्री मोदी की नफरती भाषा

प्रधानमंत्री मोदी की नफरती भाषा
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14 वीं सदी में एक संत थे कबीर। जिन्होंने धर्मसत्ता और राजसत्ता को चुनौती देते हुए वाणी पर कंट्रोल रखने के लिए काफी कुछ लिखा। उनकी बातों का तब असर हुआ कि नहीं, कहना मुश्किल है, लेकिन आज तो कबीर को पूजा जाता है, सुबह सुबह हमारे मन्दिरों में कबीर की वाणी सुनायी पड़ती है। फिर क्यों हमारे राजनेता बेलगाम हुए जाते हैं? 18 वीं लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान लोकतंत्र के धर्मयोद्धा कैसी वाणी बोल रहे हैं? कैसी बातें बोल रहे हैं हमारे राष्ट्र नेता? प्रचंड लोकप्रिय स्वयंभू, विश्वगुरू प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो हद ही कर दी है। नफरती भाषण देने में मोदी ने अपने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। भारत में इससे पहले जो प्रधानमंत्री हुए, वे मोदी के मुकाबले इतने लोकप्रिय थे या नहीं, कहना असंभव है। मोदी जितने शक्तिशाली थे या नहीं, यह कह पाना भी मुश्किल है। लेकिन यह जरूर पक्का है कि भारत के किसी भी प्रधानमंत्री की भाषा ऐसी नहीं थी जैसी नरेन्द्र मोदी बोल रहे हैं। चुनाव में मोदी के नफरती और झूठे भाषणों की फहरिश्त लम्बी होती जा रही है। सवाल उठता है कि क्या देश के प्रधानमंत्री के भाषणों का स्तर ऐसा होना चाहिए, जैसा नरेन्द्र मोदी के भाषणों का है? मोदी अपने 10 साल के कार्यकाल और विकास की बात बिल्कुल भी अपने भाषणों में नहीं कर रहे हैं, वे सिर्फ भड़काउ भाषा का इस्तेमाल करके देश में मुसलमानों को बड़ा खतरा बताने में लगे हुए हैं। देश किस दिशा में जा रहा है, यह सवाल भी हर भारतीय के लिए महत्वपूर्ण होना चाहिए।

देश के 17 करोड़ मुसलमानों को नरेन्द्र मोदी के द्वारा क्यों निशाना बनाया जा रहा है? क्या मोदी को मालूम है कि विकास के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता? चुनाव को मुद्दा विहीन क्यों बनाया जा रहा है? नफरती भाषणों का अंजाम आखिर क्या होगा? क्या मोदी सरकार ने 10 सालों में कुछ ऐसा बुनियादी काम नहीं किया है जो चुनाव में गिनाया जा सके? आखिर क्यों मस्जिद, मंगलसूत्र, मुसलमान पर आकर टिक जाते हैं नरेन्द्र मोदी? धर्म के नाम पर राजसत्ता को आखिर कब तक हांका जाएगा? चुनाव आयोग को नफरती और झूठे भाषणों पर एक्शन लेना चाहिए था, लेकिन जब देश की मीडिया पंगू बन चुकी हो और सिस्टम नेताओं के इशारों पर नाच रहा हो तो किससे और कैसी उम्मीद की जाए? भारत के प्रधानमंत्रियों के भाषण कैसे होते थे? जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों को सुनकर देखिए। कभी भी किसी भी प्रधानमंत्री ने चुनावी प्रचार में किसी धर्म को निशाना नहीं बनाया। तानाशाह हिटलर ने जब प्रचंड बहुमत से चुनाव जीता तो उसने अपने भाषण में जर्मनी के आर्थिक संकट, व पहले विश्व युद्ध के बाद हुए समझौते के नुकसान के मुद्दे उठाये थे। हिटलर ने भी चुनाव प्रचार में यहूदियों को इस तरह निशाना नहीं बनाया था, जैसा भारत के प्रधानमंत्री कर रहे हैं। भारतीय संविधान क्या कहता है? देश का कानून क्या कहता है? किसी समुदाया के प्रति घृणा और हिंसा फैलाने की इजाजत संविधान और कानून में नहीं है। क्या नरेन्द्र मोदी की भाषा आचार संहिता का उल्घंन नहीं है? मोदी का भाषण हेट स्पीच नहीं है? क्या सुप्रीम कोर्ट कानून के राज और संविधान की रक्षा के लिए इसका संज्ञान लेगा? धार्मिक ध्रुवीकरण से चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है। जीत भी जाए तो क्या ? प्रधानमंत्री की हेट स्पीच का नतीजा कौन भुगतेगा? हिंसा और घृणा की आग सबको झुलसाती है। क्या हिन्दू क्या मुसलमान। खामियाजा पूरा देश भुगतेगा। देश की एकता, अखंडता, विविधता, बहुलता और लोकतांत्रिक विरासत के मुताबिक भारत में किसी भी किस्म की हेट स्पीच की दरकार नहीं है। जिन देशों में जनता को धर्म के नाम पर बांटा गया है, उनका इतिहास क्या है? भारत-पाकिस्तान विभाजन का इतिहास क्या है? हम फिर उस मंजर तक नहीं जाना चाहेंगे।

विश्वभर के देशों में लोकतंत्र की विरासत में जो भाषा हमें मिली है, वह कैसी है, कम से कम पढ़े-लिखे लोगों को तो मालूम होना ही चाहिए। किसी राष्ट्रनेता की भाषा कैसी होनी चाहिए, इसका भी अंदाजा होगा। हम अपने को विश्वगुरु कहते हैं, सनातनी मानते हैं, धर्म और आस्था क्या, ज्ञान-विज्ञान के मामले में भी हम किसी को कुछ नहीं समझते। स्वतंत्रता संग्राम के दो सौ साल के इतिहास में जननेता, राष्ट्रनेता भी कम नहीं हुए। लाखों शहीदों की शहादत की विरासत हमारे लोकतंत्र की जमीन है तो लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा समानता, स्वतंत्रता और न्याय है। सभी समान, सभी स्वतंत्र और सबके लिए न्याय। संवाद और अभिव्यक्ति, मौलिक अधिकार और नागरिक, मानव अधिकार लोकतंत्र के मूल तत्व हैं। अब हम जो देख रहे हैं, वह कैसा लोकतंत्र है? कैसी सभ्यता है? कैसी संस्कृति है?
धर्म के नाम ध्रुवीकरण कोई नई बात नहीं है। लोकतंत्र से पहले समूचे यूरोप में धर्मसत्ता के मातहत थी राजसत्ता, यूरोप में सौ साल तक इस्लाम के खिलाफ धर्मयुद्ध हुआ भारतीय इतिहास में किसी धर्मयुद्ध या जिहाद का कोई उल्लेख है? सम्राट अशोक और सम्राट कनिष्क जैसे महान शासकों के समय बौद्ध धर्म शासकों का धर्म था तो 11वीं सदी से 1757 में पलाशी के युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय से पहले तक भारत में सारे शासक इस्लामी थे। अंग्रेजों ने दो सौ साल तक भारत में हुकूमत चलाई। धर्म का इस्तेमाल राजसत्ता ने सभी देशों में, सभी काल में किया है। क्या स्वतंत्रता के बाद 2014 से पहले भारतीय राजनीति में धर्म का इस्तेमाल नहीं हुआ? यकीनन हुआ। लेकिन 2014 के बाद राजनीति और लोकतंत्र की भाषा में जैसी हिंसा और घृणा का इस्तेमाल हो रहा है, वैसा कभी नहीं रहा।
सात चरणों में होने वाले 18 वीं लोकसभा चुनाव का तीसरा चरण पूरा होने के है। सत्तादल का लक्ष्य है 400 पार। प्रधानमंत्री ने स्वयं 2050 तक के राजकाज का नक्शा तैयार कर लिया है, उसे सार्वजनिक भी कर दिया है। हो सकता है कि वे तीसरे कार्यकाल के लिए चुने जाएं, 26 साल और जियें और 2050 तक या उससे आगे भी राजकाज चलाएं। कहा जाता है कि भगवान श्रीराम ने दस हजार साल तक राज किया और उनके अवसान से त्रेता युग समाप्त हुआ। नरेंद्र मोदी अगर 10 हजार साल तक भी राज करें और उनके शासन के अवसान पर कलियुग का अंत हो, तो कोई भारतीय नागरिक इस पर आपत्ति जताने की स्थिति में है क्या? भविष्य में होगा?

चुनावी भाषण में जैसी वाणी का प्रयोग वे इस बार कर रहे हैं, यकीनन भारत के किसी प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया। उनको चुनौती दे रहे राहुल गाँधी या पक्ष-विपक्ष के स्टार प्रचारकों की भाषा से भी नागरिकों की अपनी कोई भाषाई, संस्कृतिक अस्मिता अगर कुछ बची हुई है तो उसे जख्मी, लहूलुहान हो जाना चाहिए। यह धर्मयुद्ध में द्रोपदी का चीरहरण है। सतहत्तर साल के भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में भाषा और संस्कृति का ऐसा अपमान कभी नहीं हुआ। क्या यह सनातन संस्कृति के अनुकूल है? क्या यही सनातन वाणी है? प्रधानमंत्री के भाषण में सीधे निशाने पर हैं भारत के मुसलमान। वे बार-बार अपने चुनावी भाषण में चेतावनी दे रहे हैं कि कांग्रेस सत्ता में आई तो माँ-बहनों के गहने और मंगलसूत्र तक मुसलमानों को दे देंगे। कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र में संपत्ति के बँटवारे के वायदे को लेकर वे सीधे मुसलमानों पर प्रहार कर रहे हैं। इसकी कोई बेहतर आलोचना क्या वे नहीं कर सकते? या धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए वे जानबूझकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं? सवाल अनेक हैं, सोचना आपको है, फैसला आपको लेना है। बने रहिए अनसुनी आवाज के साथ। नमस्कार। धन्यवाद।

रूपेश कुमार सिंह
सम्पादक, अनसुनी आवाज
रूपेश कुमार सिंह
सम्पादक, अनसुनी आवाज

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