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 संगत ने बेटे को शराब पीना सिखाया और चुनाव व नेताओं ने उसे शराबी बना दिया

-रूपेश कुमार सिंह

वो सुन नहीं सकती, बोल भी नहीं पाती। आँखें हैं! सो देखती है, लेकिन अब दुनिया कोे देखना उसे पसंद नहीं है। वो अपनी ही दुनिया में खोये रहना चाहती है। महसूस करती है वो हर एक स्पर्श को बहुत अच्छे से। हर एक नजर को माँ के आँचल के भीतर से झाँककर या सामने रहने वाली भाभी के दोनों हाथों के बीच दुबक कर। सामने वाली दीदी को उसकी माँ भाभी कहती हैं। पता नहीं कैसे और कब उसने लड़खड़ाती जुबान में भाभी कहना सीखा होगा। इसके अलावा बोलने को उसके पास सिवाए सिसकियों के कुछ नहीं है।

नहीं है पसंद उसे लोगों का हुजूम, भीड़-भाड़, होहल्ला-शोरगुल। तीन साल पहले उसने गाँव के बड़े-छोटे, महिला-पुरूषों का सैलाब अपनी चौखट पर देखा था। सुन तो सकती नहीं थी वो, लेकिन लोगों के भावाभिनय को देखा और महसूस किया था। अब उसे मिष्ठी के साथ खेलना भाता है। कुछ एक बच्चे और जुटते हैं उसके साथ। लेकिन कोरोना ने उसे फिर से अकेला कर दिया है। सड़क सूनी हैं। घर में कोरोना की दहशत है। बच्चें करें भी तो क्या?

उसे अपने इर्द-गिर्द बड़ो की मौजूदगी डराती है, फिर चाहे महिलाएं हों या पुरूष। दुनिया की चकाचौंध और दिन के उजाले से वो अपने घर के सदियों के अँधकार में खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस करती है। उम्र 16 है, रंग गौरा। हाथ-पैर की अंगुलियां कुछ-कुछ ऐंठी हुईं हैं। तीन साल पहले सील भंग होने के कारण शरीर में अजीब सा उभार है। दोषी जेल में है, लेकिन सजा तो इसे भी रोज ही मिल रही है। मायूस रहती है, कहीं खोई-खोई जैसे। बच्चे जब तक करीब रहें, तब तक खुश। अपने सारे गम भूल कर बच्चों में मस्त रहती है वो। फिलहाल यह सिलसिला भी थमा हुआ है।

सड़क के इस पार चहारदीवारी पर छोटा सा टीन शेड। दो कमरे। बाहर की तरफ खुले में चूल्हाचौका। घर में दो भाई, माता-पिता। सड़क के उस पार भाभी, भैया और मिष्ठी। यही है उसकी जिन्दगी की परिक्रमा। माँ लोगों के घर चौका-बर्तन करती, पिता लोगों के खेतों में काम। दिन भर दोनों घर से बाहर ही रहते थे। वो भाभी के घर पर। दोनों भाई छोटेपन में ही कच्ची के दीवाने हो गये। कब ये लत लगी उन्हें कहना मुश्किल है। कच्ची का पागलपन ऐसा कि सूर्योदय से दोनों मस्त होते और अस्त होने तक मदमस्त होकर जहाँ-तहाँ पड़े रहते। 

कब तक घर वाले उठा-उठा कर लाते रहते। दो-चार दिन का किस्सा तो था नहीं। अक्सर ही दोनों खेत में, नाली में, गूल में, सड़क किनारे पस्त मिलते थे। छोटा तो तब भी कुछ हद तक ठीक था, लेकिन बड़े को कच्ची शराब ने पूरी तरह से पंगू बना दिया था। माँ बताती है, ‘‘चुनाव में मिलने वाली रंगीली (कच्ची शराब) ने उसके दोनों लड़कों को अपनी आगोश में ले लिया। गाँव के तमाम लड़के कच्ची शराब से तबाह हो चुके हैं।’’ 

भारत चुनावों का देश है। साल-दो साल में कोई न कोई चुनाव लगा ही रहता है। एक चुनाव निपटता नहीं कि दूसरा तैयार रहता है। वैसे भी नेताओं को अब हर वक्त भीड़ चाहिए होती है। कभी जिन्दाबाद करने के लिए, कभी मुर्दाबाद करने के लिए। ऐसे में गाँव-देहात में कच्ची बड़ी मददगार होती है। गाँव के लड़कों को न काम न धाम, बस कच्ची मिल जाए तो कहीं भी ले चलो। जिसकी मर्जी ऐसी-तैसी करा लो। 

माँ कहती है, ‘‘बचपने में संगत ने बेटे को शराब पीना सिखाया और चुनाव व नेताओं ने उसे शराबी बना दिया। घर के किसी काम का नहीं था वो। ऐसी औलाद से बेहतर है बिन औलाद होना।’’ ऐसा ताना माँ हमेशा मारा करती थी।

छोटा भी बड़े के नक्शेकदम पर है। बाप भी कम शराबी नहीं है। बस कुछ जिम्मेदारी का बोध है उन्हें। गाँव में बड़े नेताओं के आजू-बाजू बसेरा तो कच्ची की कमी वैसे भी नहीं होती है। कभी-कभी पक्की के भी दर्शन हो जाते हैं। नेताओं को हर वक्त लोग जो चाहिए होते हैं, जय-जयकार करने के लिए। बड़ा वाला तो ठेठ शराबी था। सफेद रंग की पन्नी में कच्ची, बोतल में पानी, नमक-प्याज या बहुत हुआ तो आलू भुजिया वाली नमकीन। इतना भर चाहिए होता था उसे।

गाँव वाले बताते हैं कि लड़का करीब 22-24 साल का था। वो पन्नी में तिनका सा छेद करके ऐसे ही मुँह से लगा लेता था। मुँह तब तक नहीं हटाता था जब तक पन्नी की एक-एक बूंद हलक से नीचे उतर न जाए। आँखें मींचकर थोड़ा पानी फिर नमक चाट लेता था। खाने का अता-पता नहीं होता था। मिल गया तो ठीक नहीं तो राम भरोसे। ऐसी स्थिति में उसे कब तक बचना था। चार रोज पहले वो गुजर गया। 

गरीब आदमी का अन्तिम संस्कार भी क्या होता है? जैसे-तैसे माँ-बाप ने गाँव से लकड़ियां इकठ्टा करके उसे फूँक डाला। रात तो गुजरनी थी, सो जैसे-तैसे कट गयी। शाम को भाभी ने कुछ रोटी-सब्जी भेज दी थी। घर भाभी भी न आ सकीं। बुखार जो था उन्हें। मिष्ठी जरूर पूछती रही अपनी सहेली के बारे में। गरीब का गम भी जैसे दिहाड़ी पूरा करने जितना होता है। सुबह पिता काम पर चले गये।

भाभी ने कुछ मदद के लिए मेरी दोस्त शालिनी को फोन किया। रुद्रपुर से वापसी में हम राशन की एक किट साथ ले आये। आटा, चावल, नून, तेल और बहुत कुछ था उसमें। मैंने कहा भी, ‘‘शालिनी गाँव वाले ऐसे समय में मदद कर देते हैं, हम फिर कभी चले जायेंगे।’’ ‘‘सुबह से बच्ची और उसकी माँ ने कुछ नहीं खाया है। वे लोग बहुत गरीब हैं। उनके पास कुछ भी नहीं है खाना बनाने को। कोरोना में कोई भी वहाँ जाना पसंद नहीं कर रहा है। हमें अभी चलना है।’’ शालिनी ने कहा। शालिनी तीन साल पहले हुए हादसे के समय से उस परिवार को जानती है। हम गूलरभोज की ओर बढ़ चले।

सड़क किनारे भूसे के बोंगे की पीछे एक टूटा-फूटा सा टीन शेड। पगडंडी के दोनों ओर घांस और कुछ भांग के पौधे थे। थोड़ी दूरी पर जानवरों का गोबर जमा था। शायद गाँव के किसान यहीं जानवरों का गोबर फेंकते हैं। बांयी तरफ नल पर कूछ जूठे बर्तन पड़े थे। शायद यह बीती रोज दिन के रहे होंगे। सूरज पश्चिम की ओर बढ़ रहा था। लेकिन तापमान 40 से ऊपर का रहा होगा। चार बजने को थे। हम दोनों राशन की किट लेकर बच्ची के घर पहुँचे। छोटा भाई चारपाई पर चित पड़ा था। वो आज भी कच्ची में डूबा हुआ है।

 माँ बुखार में तप रही थी। बच्ची कमरे के एक कोने में बैठकर सुबक रही थी। वो शालिनी को पहले से जानती थी। देखकर फूट पड़ी। कोरोना के डर से दिन भर गाँव का कोई व्यक्ति उनके घर नहीं आया था। किसी ने उनके खाने-पीने की सुध नहीं ली थी। इस दौर में जब शारीरिक फासला रखना है, तब ऐसी स्थिति में बच्ची को सीने से अलग कर पाना कहाँ संभव था शालिनी के लिए। आधे घंटे तक शालिनी बच्ची को समझाती रही। लेकिन उसकी सिसकियां कहाँ रूकने वाली थीं।

चिता की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि पेट की आग ने पिता को दूसरे ही दिन काम पर झोंक दिया। माँ बिना दवाई के पड़ी है। चूल्हे के पास कुछ अधजली लकड़ियां हैं। ऊपर एक तख्ते पर कुछ डिब्बे रखे हैं। एक डिब्बे में आधी चम्मच जितनी चाय पत्ती दिख रही है। बाकी सब खाली हैं। आटा-चावल का कनस्तर भी खाली है। ऐसा लग रहा है कि घर से चूहे भी नदारद हैं। गरीबी का ऐसा आलम? वो भी तराई की उपजाऊ धरती पर? समझा जा सकता है कि देश के बाकी हिस्सों में क्या हालात होंगे।

मरे पर घर में चूल्हा नहीं जलता है। इस भ्रम को तोड़ने में हमें ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ खरबूजे हमने घर के लिए लिये थे। मैंने गाड़ी से एक खरबूजा निकाल कर उन्हें दिया। शालिनी ने अपने हाथ से बच्ची को खरबूज खिलाया। माँ ने खाना बनाना शुरू कर दिया है। चारपाई पर निढाल पड़ा छोटा भाई नशे में चूर है, उसे दीन-दुनिया से कोई मतलब नहीं है।

सड़क के दूसरी ओर गाँव है। चंद कदमों पर बड़े नेता का महल है, लेकिन इस पार एक गरीब परिवार भूख से बिलच रहा है। किसी को कोई खबर नहीं है। कोई सरोकार नहीं है।

धिक्कार है ऐसी सामाजिक व्यवस्था पर जो हमें सिर्फ आत्मकेन्द्रित बना रही है। जिस समाज में संवेदनहीनता होगी वो समाज कभी सभ्य हो ही नहीं सकता। आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं? 

तमाम सवालों के साथ मैं और शालिनी खामोशी लिए गाड़ी में बैठ गये और दिनेशपुर वापस आ गये।

रूपेश कुमार सिंह

9412946162

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