मास्साबः सिर्फ व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं!
– रूपेश कुमार सिंह
(भाग-एक और भाग-दो यहाँ पढिए)
सन 2000 में मजदूर-किसान संघर्ष समिति का गठन किया। संगठन का विस्तार ऊधम सिंह नगर व बरेली जनपद में था। बड़ी तादात में लोग तेजी से संगठन से जुड़ रहे थे। तब हमारे घर पर स्थायी तौर पर 5-7 होलटाइमर रहते थे। मास्साब के जीवन की यह एक बड़ी उपलब्धी थी, कि उन्होंने 1999-2002 तक लगभग दो दर्जन नौजवान साथियों को पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर समाज में उतारा। इसमें महिला व पुरूष दोनों थे। जिनमें अजीत बिसारिया, चन्द्रशेखर, असित मण्डल, अजय सिंह, राजेन्द्र सिंह, वीरेन्द्र, दीप पाठक, तारा, गीता, कविता, रीना, सुनील सिंह, कुन्दन, पवित्र, रामानन्द आदि प्रमुख थे। एक छोटे से संगठन के लिए 10-12 होलटाइमरों व 20-22 सक्रिय कार्यकर्ताओं का खर्च उठा पाना आसान नहीं होता है। पर मजदूर-किसान संघर्ष समिति के बैनर तले मास्साब ने दर्जनों होल्टाइमरों को लम्बे समय तक गतिमान रखा। यह बात दीगर है कि 2004 में कथित माओवाद के नाम पर प्रगतिशील संगठनों के कार्यकर्ताओं के दमन के दौरान तमाम कार्यकर्ता बिखर गये। मास्साब स्वयं माओवाद के नाम पर दमन का शिकार हुए। लेकिन उन्होंने संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा। नये साथियों की तलाश में वे फिर से निकल पड़े। वास्तव में मास्साब नौजवानों में ऊर्जा का संचार करने में माहिर थे। उनके विचार लोगों को संगठित व मजबूत बनाते थे।
नगर पंचायत दिनेशपुर में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन उफान पर था। एक तरफ दोषियों को बचाने की कबायद चल रही थी, तो दूसरी ओर मजदूर किसान संघर्ष समिति के कार्यकर्ता दोषियों को सजा दिलाने के लिए प्रतिबद्ध थे। बात 7 अगस्त 2001 की है। सैकड़ों की संख्या में समिति के कार्यकर्ता और नगरवासी जुलूस-प्रदर्शन के लिए दिनेशपुर में एकत्र हुए थे। इस बावत एसडीएम से अनुमति भी ली गयी थी। सभा के बाद जब जुलूस मुख्य बाजार में दाखिल हुआ तो पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को चारों ओर से घेर लिया। लाठीचार्ज शुरू कर दिया। रणनीति के अनुसार उस दिन आन्दोलन का नेतृत्व अजीत बिसारिया और असित मण्डल कर रहे थे। पुलिस ने अजीत और असित के साथ 9 मुख्य कार्यकर्ताओं को गिरफतार कर लिया। बड़ा भाई वीरेश भी पुलिस की गिरफत में था। लेकिन पुलिस का मुख्य टारगेट मास्साब थे। उनकी धरपकड़ के लिए पुलिस ने कई जगह दबिश दी। अगले दिन रूद्रपुर कलेक्ट्रेट पर विशाल प्रदर्शन था। उसी दौरान पुलिस ने मास्साब को उठा लिया। मास्साब पर रासुका के तहत कार्यवाही करने की पुलिस ने भरसक कोशिश की, लेकिन जबर्दस्त विरोध और मीडिया कर्मियों के सहयोग से मास्साब को अन्य सथियों के साथ गंभीर धाराओं में चालान किया । वीेरेश ने भी मास्साब के साथ 12 दिन जेल में बिताये।
सभी जानते है कि 2001 व 2005 में पुलिस ने मास्साब को पकड़कर जमकर टॅार्चर किया। लेकिन पुलिस की मार उन्हें कभी डिगा नहीं सकी। क्योंकि वो मानते थे ‘‘पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती, सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।’’ 2005 में बरेली पुलिस की कस्टडी में मास्साब ने खुफिया विभाग और बाद में पत्रकारों को बताया था कि ‘‘वह जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष के हर रास्ते को जायज मानते हैं, लेकिन उन्होंने स्वयं व उनके साथियों ने कभी हथियार नहीं उठाये।’’ वास्तव में मास्साब बहुत स्पष्टवादी थे।
28 नवम्बर 2005 को बड़े भाई वीरेश की शादी थी। बारात रामपुर जानी थी। तैयारी चल रही थी। इधर माओवाद के नाम पर प्रगतिशील ताकतों का दमन जारी था। मास्साब अपने गांव (शाही, बरेली) में थे। 11नवम्बर को मास्साब रिश्तेदारी में निमंत्रण करने के लिए निकले थे। बरेली पुलिस ने उन्हें शीशगढ़ से पकड़ लिया। लगभग चार दिनों तक मास्साब का कोई पता नहीं चला। पुलिस कुछ बताने को तैयार नहीं थी। कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया। इधर पत्रकार मित्रों ने जोर-शोर से मामला उठाया। 16 नवम्बर को बरेली, रामपुर और उत्तराखण्ड के अखबारों में फ्रंट पेज पर खबर छपी कि ‘‘माओवादी ट्रेनर मास्टर प्रताप को उत्तराखण्ड पुलिस के कहने पर पकड़ा गया।’’ लेकिन उत्तराखण्ड और बरेली पुलिस के पास मास्साब के खिलाफ कोई वारंट नहीं था। न ही मास्साब किसी मुकदमें में वांछित थे। अन्ततः कोर्ट की फटकार के बाद बरेली पुलिस को खेद व्यक्त करना पड़ा और मास्साब को तुरन्त रिहा करना पड़ा। इस मामले का पूरे देश में तीखा विरोध हुआ। साथ ही बरेली और उत्तराखण्ड पुलिस की खूब किरकिरी हुई। इसलिए उत्तराखण्ड पुलिस उन्हें फंसाने के लिए नये हथकंड़े खोजने लगी। मास्साब को एक बार फिर भूमिगत होना पड़ा। परिवार में पहली शादी थी, लेकिन मास्साब उसमें शामिल नहीं हो सके। त्याग और समर्पण का इससे शानदार उदाहरण और कहां मिलेगा?
अब मास्साब ज्यादा समय गांव में ही देने लगे। दादा जी के साथ खेती करने लगे। वो खेत जिन्हें उन्होंने बचपन में सींचा था, एक बार फिर उनसे जुड़ गये। 2006 में गांव के कुछ इंसाफ पसंद लोगों को लेकर उन्होंने ‘किसान एकता मंच’ का गठन किया। गन्ना किसानों और शाही की मुख्य सड़क के लिए उन्होंने जबर्दस्त आन्दोलन खड़ा किया। नदी कटाव करते-करते गांव की ओर मुख कर रही थी। वर्षों से नगरवासी नदी में पिचिंग की मांग करते आ रहे थे, लेकिन प्रशासन ने सुध नहीं ली। मास्साब और उनके सार्थियों ने उग्र आन्दोलन कर प्रशासन को पिचिंग कराने के लिए विवश किया। इस बीच उन्होंने गांव में जड़ी-बूटी और बागबानी भी शुरू की। वे कहते थे कि ‘‘ गांव और किसान बचेंगे तभी शहर और हिन्दुस्तान खुशहाल रहेगा।’’ इसलिए उन्होंने अपने मित्र कुलदीप शर्मा के सहयोग से एक आश्रम खोला, जिसमें पर्यावरण संरक्षण और जैविक खेती का काम शुरू किया। देशी गाय के पालन-पोषण पर जोर दिया। इधर पूरे देश में होने वाले मजदूर-किसान व समाजवादी आन्दोलनों के लिए मास्साब अब नयी ऊर्जा बन चुके थे। एक विचारक के तौर पर हर जगह उन्हें बुलाया जाने लगा था।
उत्तराखण्ड के तमाम जन आन्दोलनकारियों के साथ 2008-09 में उन्होंने पूरे उत्तराखण्ड में परिवर्तन के लिए अभियान चलाया और उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी की स्थापना की। उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के साथ उन्होंने मृत्यु पर्यन्त काम किया। लेकिन वहां भी भीतरी खामियों व कार्यनीति को लेकर उनका बागी तेवर बरकरार रहा। एक बार तो उन्होंने पार्टी से इस्तीफा भी दिया था, लेकिन वह मानते थे, उन्होंने अपनी डायरी में लिखा भी है कि ‘‘उत्तराखण्ड की बेहतरी के लिए उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी ही एक मात्र विकल्प है, क्योंकि उपपा के पास ही राज्य के विकास के लिए विस्तृत कार्यक्रम है। बहुत स्पष्ट नीति और नियत है।’’ मास्साब उत्तराखण्ड की आन्दोलनकारी शक्तियों में एक सम्मानित नाम हैं। बीमारी के दौरान भी वह नैनीसार जैसे आन्दोलन में सक्रिय रहे। नैनीसार आन्दोलन के दौरान भी पुलिस ने उनपर मुकदमा लगाया। पुलिस-प्रशासन, सत्ता का लाख दमन मास्साब को डिगा नहीं सका। मटकोटा-दिनेशपुर मार्ग निर्माण के लिए उन्होंने ठोस योजना आन्दोलनकारियों को दी। उनके दिशा-निर्देशन में मैजिक चलाने वाले जुझारू युवा विकास स्वर्णकार ने दो साल तक संघर्ष किया और जीत दर्ज की। राज्य सरकार और प्रशासन को झुकना पड़ा। उनके जीवन संघर्ष की शानदार बात यह है कि उन्होंने जितने भी आन्दोलन किये, लगभग सभी में सफलता हासिल की। इसके पीछे उनका दृढ़ संकल्प और दूरदृष्टि रखना ही खास है। वो मानते थे-‘‘कर्म और विचार में समानता लाने से ही संघर्ष जीते जाते हैं।’’
मास्साब भारतीय समाज को अर्द्ध उपनिवेशिक/अर्द्ध सामंती और अर्द्ध पूंजिवादी मानते थे। समाज की जटिलता और कमजोर नब्ज को अच्छे से पहचानते थे। उन्होंने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, आडंबर और भेद-भाव को मिटाने के लिए बहुत संजीदगी से काम किया। ‘‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’’ युक्ति की तर्ज पर उन्होंने अनेक काम किये। जातिगत भेद-भाव को वह समाज के विकास में सबसे ज्यादा बाधक मानते थे। इसलिए उन्होंने तमाम गैर जातीय विवाह कराये। जिसमें दीपा-प्रशान्त, तारा-अजीत, गीता-अजय, रीना-कुन्दन आदि प्रमुख हैं। सभी साथी बेहतरीन साथ निभाते हुए जिन्दगी जी रहे हैं। गैर जातीय विवाह कामयाब नहीं होते हैं, उन्होंने इस मिथक को तोड़ा। मास्साब जो कहते थे उसे अपने ऊपर लागू भी करते थे। छोटे भाई रवि और अनुज की शादी भी गैर बिरादरी में हुई। मास्साब सहकारिता और साझा कार्यक्रम को हर जगह लागू करते थे। उन्होंने अपने परिवार को संयुक्त परिवार के संस्कार दिये। वह एकल परिवार से सहमत नहीं होते थे। आज भी हमारा परिवार मास्साब के सिद्धांतों और आदर्शों पर गतिमान है। बड़ा परिवार होने के बावजूद एक ही रसोई और साझा काम, बहुत कम देखने को मिलता है। मास्साब ‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ को ही सर्वोत्म जीवन शैली मानते थे। वह खुद तो इस विचार की शानदार प्रतिमूर्ति थे ही, साथ ही उन्होंने हमें भी इसके लिए प्रेरित किया। वह कहते थे ‘‘श्रम ही सुख का आधार है। जो किसी योग्य नहीं है, वही पराधीन है।’’ वास्तव में उन्होंने हम सबको मेहनत करना सिखाया। ‘‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशयारी, सच है दुनिया वालों कि हम हैं अनाड़ी’’ यह गाना मास्साब अक्सर गुनगुनाया करते थे। आनन्द फिल्म का एक संवाद ‘‘जिन्दगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिए’’ का जिक्र वह अपनी बातचीत में अक्सर करते थे।
जीवन के अन्तिम दिनों में भी मास्साब देश-दुनिया, समाज, व्यवस्था, मजदूर-किसानों के लिए चेतनशील थे। वो किसानों की समस्या और उनके समाधान पर किताब भी लिख रहे थे। सोशल मीडिया और अपनी डायरी पर विचारों को लगातार उतार रहे थे। ‘प्रेरणा-अंशु’ के सम्पादकीय में देश के हालात पर वो मुखर थे। निधन से एक दिन पूर्व भी उन्होंने मुझसे और पलाश विश्वास से लम्बी-बातचीत की थी। मास्साब को यदि मैं सिर्फ पापा के तौर पर याद करुं तो मेरे पास लिखने को कुछ खास नहीं होगा। क्योंकि उन्होंने पत्नी, बच्चे, परिवार से ज्यादा समाज के उत्थान के लिए काम किया। उनका मानना था कि जब समाज बेहतर होगा, तो मेरा परिवार भी बेहतर होगा। मैं इतना जरूर कहूँगा कि उन्होंने हम चारों भाईयों में जो विचार व संस्कार दिये हैं, वो हमारे जीवन को निखार रहा है। उन्होंने हमें पूंजीकेन्द्रित, आत्मकेन्द्रित, और भौतिकवादी नहीं बनाया। यह एक बड़ी पूंजी है और एक पिता के तौर पर शानदार काम है। मैंने तमाम कामरेड देखे हैं जो अपने ही परिवार का विरोध झेल रहे होते हैं। वो समाज को तो बदलने की बात करते हैं। लेकिन अपने परिवार को नहीं बदल पाते है। मास्साब ने अपने हर संघर्ष में पत्नी, बच्चों को साथ रखा। संघर्ष की जरूरत से परिवार को सहमत किया। यही वजह है कि मास्साब के जाने के बाद भी मम्मी, हम चारों भाई, बहुएं और बच्चे उनके बताए संघर्ष के रास्ते पर चल रहे हैं। हम मास्साब के विचारों के साथ न्यायपसंद, समतामूलक और समाजवादी समाज की स्थापना के लिए होने वाले हर संघर्ष में सहयोगी रहेंगे।
वास्तव में मास्साब गरीब, मजदूरों-किसानों, शोषित वर्ग की आवाज हैं, वो सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार हैं। मास्साब आप हमेशा जिन्दा रहोगे हमारे विचारों में………..
लाल सलाम मास्साब!!!
फिलहाल बस यहीं तक……..
(साथियों मास्साब से संबंधित तमाम लेख, संस्मरण, कविताएं आदि सामग्री विस्तार से ‘प्रेरणा-अंशु’ के मई अंक में प्रकाशित है। मैंने यहां उन पलहुओं को ही दर्शाया है जिनका जिक्र कम या विस्तार से नहीं हो पाया है। आप सभी फेसबुक के मित्रों का बहुत बहुत धन्यवाद! मास्साब के अधूरे सपनों को साकार करने में आप सभी यथासंभंव सहयोग करेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। – रूपेश कुमार सिंह 09412946162)