आलती बूढ़ीः 15 साल की उम्र में सिमट गयी जिन्दगी
-रूपेश कुमार सिंह
धर्मनगरी बंगाली कालोनी, बिजनौर की रहने वाली आलती बूढ़ी तकरीबन सत्तर साल की हैं। इस उम्र की तमाम बुढ़ियाओं से कुछ ज्यादा ही बूढ़ी। चेहरे पर अनगिनत झुर्रियां हैं। हर एक लकीर पर दर्ज है उनके जीवन की दर्द भरी दास्तां। मुँह में सामने के दो दाँत शेष हैं। आँखें भीतर की ओर धंस चुकी हैं। रंग गौरा है। गाँव वाले कहते हैं कि आलती बूढ़ी अपनी उम्र में बेहद खूबसूरत थीं। लेकिन वे अपनी खूबसूरती को कभी जी नहीं पायीं। शायद उनका सुन्दर होना ही अभिशाप बना। गाँव की युवा पीढ़ी उन्हें आलती बूढ़ी के नाम से पुकारती है।
तीन बच्चे हैं, तीनों शादीसुदा। यूँ तो आलती बूढ़ी का अपना परिवार है, लेकिन पूरी धर्मनगरी कालोनी उनका घर है। किसी भी घर में वे कभी भी आ-जा सकती हैं। प्रत्येक गाँव वाला उनका सम्मान भी करता है। आलती बूढ़ी देखने में जितनी सरल, मधुर और सुन्दर हैं उनके जीवन की हकीकत उतनी ही कठोर, करकस और बदसूरत है। 15 साल की उम्र में आलती बूढ़ी की जिन्दगी अपने आप में सिमट गयी। अपनी आपबीती बताते-बताते कभी वे जोर से हँस पड़ती हैं, तो कभी उनका दिल भारी हो जाता है।
बिजनौर प्रवास के दौरान एक छोटी लेकिन खास मुलाकात आलती बूढ़ी से…
‘‘तब मेरी उम्र दस भी नहीं थी। बापेर बाड़ी (पिता का घर) में चहल-पहल थी। गाँव के लोग सुबह से ही घर पर जमा थे। आनगाँव के रिश्तेदार भी कुछ न कुछ खाबार (खाने की चीज) लेकर बाड़ी आ रहे थे। जो भी आता मुझे चूमने लगता और बहुत ही प्यार जता रहा था, लेकिन ऐसा तो कभी नहीं हुआ। एक बार मन में यह सवाल उठा जरूर, पर उल्लास में बात आयी-गयी हो गयी। कुछ भी हो मुझे अच्छा लग रहा था। उस रोज मुझे सुबह से ही नये कपड़े पहना दिये गये थे। मैं भी नयी पोशाक में साथी-संगियों के साथ खेलने में मशगूल थी। बीच-बीच में बाबा (पिता) आवाज देते, ‘‘ओ माँ तुम्हीं कोथाये? देखो के आइसे आमादेर बाड़ी। (माँ तुम कहाँ हो, देखो तो कौन आया है अपने घर)
मैं आवाज सुनते ही दौड़ी चली आती। आने वाले मुझे दुलार देकर औरों से मिलने लगते। मैं मौका देखकर फिर खेलने निकल जाती। घर के एक कोने में गाँव के कुछ लोग कछुए का मीट, दाल, भात पका रहे थे। आँगन में तिरपाल का शामियाना टंगा था। गर्मियों के दिन थे। कुछ लड़के कुँए से पीने का पानी लाकर एक कनस्तर में जमा कर रहे थे। बीड़ी, पान, काली चाय, मूड़ी, गुड़ और पानी का सेवन आने-जाने वाले लोग कर रहे थे। तीज-त्योहार पर गाँव में होने वाले उत्सव की तरह ही घर का माहौल था। उस दोपहर नींद नहीं थी आँखों में। लोग बता रहे थे, ‘‘आजके तौर बीए। (आज तेरी शादी है)
शादी क्या होती है मुझे नहीं मालूम था। खेला कर रहे बच्चे भी शादी है कहकर चिढ़ा रहे थे। पता किसी को कुछ नहीं था। शाम होते महिलाओं ने मुझे खेलने से रोक दिया। मेरा मन अभी और खेलने-कूदने का था। लेकिन जबरिया मुझे नहला दिया गया। रात चढ़ निकली थी। मुझे देवी की तरह सजाया जा रहा था। सज-धज कर मैं झोपड़ी में बैठी थी। इतना सजना-धजना, नये कपड़े पहनना खुशी दे रहा था, लेकिन ये सब क्यों हो रहा है, मैं इससे अंजान थी। गाँव की तीन-चार बुढ़ियां भी मेरे साथ थीं। बाहर गाँव के लोगों को पंगत में खाना खिलाया जा रहा था। तमाम लोग मुझे उपहार और पैसे दे रहे थे। बूढ़ी अम्मा ने बताया, ‘‘उपहार लेने के बाद माथा जमीन में टिका कर प्रणाम किया करो सबको।’’ मैं वैसा ही करने लगी। थोड़ी देर में पता चला कि हमारे गाँव चन्द्रपुरा के नजदीक के गाँव धर्मनगरी से कुछ लोग लालटेन के उजाले में बारात लेकर आये हैं।
इधर पंडित जी ने विधि-विधान शुरू कर दिये। मुझे झोपड़ी से गोद में उठाकर मंडप में पीढ़े (बैठने का लड़की का उपकरण) पर बैठा दिया गया। बगल में एक लड़का बैठा हुआ था। वो मेरा दूल्हा था। ऐसा दृश्य मैं गाँव में पहले देख चुकी थी। जो लड़की इस तरह से बैठती थी उसे अगली सुबह गाँव छोड़कर जाना होता था। मैं डर चुकी थी। जोर-जोर से रोने लगी। मंडप छोड़कर भागने का असफल प्रयास किया, लेकिन वहाँ पकड़ने वाले अनेक थे। मुझे कुछ महिलाओं ने कस कर पकड़ लिया। बूढ़ी अम्मा ने समझाया कि सुबह मुझे भेजा नहीं जाएगा। लेकिन वे झूठ बोल रही थीं। पर मेरे पास यकीन करने के सिवा कोई चारा नहीं था। मैं बैठी रही। कब रीति-रिवाज पूरे हुए और कब मुझे नींद आ गयी, पता ही नहीं चला।
भोर होने से पहले ही बूढ़ी अम्माओं ने मुझे जगा दिया। फिर से देवी की तरह सजाया गया। मैं समझ गयी थी कि मुझे धर्मनगरी भेजने की तैयारी है। मंै चीखने लगी। ‘‘अमी बाबा बाड़ी छाड़िये कोथाये जाबो न। (मैं पिता के घर से कहीं नहीं जाऊंगी) लेकिन मेरी सुनने वाला कोई नहीं था। मुझे जबरिया तीन-चार महिलाएं खींच कर घर से बाहर कच्ची सड़क पर ले आयीं। बारातियों के साथ मुझे पैदल ही जाना था। मैं सड़क पर ही लेट गयी और रोने लगी। सारी धूल और रेत मेरे कपड़े व शरीर में भर गयी। गुस्से में गाँव के एक बुजुर्ग ने मेरी पीठ पर तीन-चार शन्टी मार दीं। फिर भी मेरा रोना बंद नहीं हुआ। मैं जाने को तैयार नहीं हुई। बाबा ने ससुर जी से कहा, ‘‘अभी इसे रहने दीजिए, मैं दो-चार दिन में समझा-बुझा कर इसे आपके घर छोड़ आऊंगा।’’ खैर! इस बात पर सहमति बन गयी। कुछ दूर मुझे चला कर विदाई की औपचारिकताएं पूरी हुईं। कई दिनों के बाद बाबा मुझे ससुराल छोड़ गये।’’
आलती बूढ़ी बताती हैं कि वे बहुत सुन्दर थीं। इसलिए हर रोज कोई न कोई लड़के वाले घर आते रहते थे। तब छोड़ी उम्र में शादी का चलन था। दस-बारह साल की लड़की को घर में रखने का अपना डर था समाज में। इसलिए बाबा ने मेरी शादी दस साल की उम्र में ही कर दी। वे बताती हैं कि 15 की उम्र तक उनके तीन बच्चे हो गये। इसके बाद एक हादसे ने उनकी जिन्दी को पूरी तरह से तबाह कर दिया। तीसरे बच्चे के जन्म के बाद आलती के पति गोपाल मण्डल बिजनौर कुछ सामान लेने गये थे। तीन दिन के बच्चे के साथ आलती घर पर ही थीं। उस समय गेहूँ कटायी चल रही थी। गोपाल की दूसरे गाँव के कुछ लड़कों से दुश्मनी थी। वापसी में उन लड़कों ने गोपाल को घेर लिया और पीट-पीट कर मारा डाला। शव को गेहूँ के ढेर में छिपा दिया। कई दिनों वाद गोपाल का शव बरामद हुआ। इस तरह से आलती दस साल की उम्र में सुहागन हुईं। 15 साल तक तीन बच्चों की माँ बन गयीं और विधवा भी हो गयीं।
बंगाली समाज में तब पुनर्विवाह का चलन बिल्कुल भी नहीं था। आलती ने कैसे उस छोटी उम्र में तीन बच्चों का लालन-पालन किया होगा? अपनी तमाम खुशियों का गला घोंटकर कैसे जीवन को गति दी होगी? यह सुनने भर से रूह कांप जाती है। आलती ने अपनी जिन्दगी में क्या पाया? यह समाज के सोचने का विषय है। तब-जब, अब भी छोटी उम्र में बच्चियों की शादियां हो रही हैं, तो समाज को आलती बूढ़ी के जीवन से सबक लेना चाहिए।
आलती बूढ़ी की जुबान भर आयी है। साड़ी का आँचल हाथ के सहारे उनकी आँखों पर है। कुछ देर ठहरने के बाद शायद वे फिर से बोलने की स्थिति में आ जायें, लेकिन मेरी सुनने की क्षमता ने जवाब दे दिया। आखिर कोई कैसे इतने दुःखों को एक साथ लेकर जी सकता है?
-रूपेश कुमार सिंह
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