दास्तां-ए-विभाजन 1947
जश्न-ए-आजादी पर आज भी हावी है विभाजन का मातम
हरि चन्द्र बेहड़ की कहानी
1-रावी नदी के किनारे मोहम्मदपुर कस्बे के तालीवाला मोहल्ले में चार भाई, भाभी और माता-पिता के साथ रहते थे हरि चन्द्र बेहड़। बंटवारे के समय उनकी उम्र लगभग 12 साल थी। पांचवां दर्जा पास करने के बाद जब छठी में दाखिला लिया तो कुछ दिनों में ही न सिर्फ स्कूल से बल्कि अपने खेत-खलियान, घर और गांव से पलायन करना पड़ा।
श्री बेहड़ बताते हैं, ‘‘एकाएक इलाका खाली करने का सरकारी हुक्म हुआ। पता चला कि हिन्दुस्तान आजाद हो गया है और भारत व पाकिस्तान दो मुल्क बन गये हैं। चारों ओर हिंसा का माहौल था। अराजकता और अनिश्चितता का आलम था। तब हमें नहीं मालूम था कि हम लोग दोबारा अपने गांव वापस कभी नहीं आयेंगे। रात में ही काफिला चल पड़ा। हमारे काफिले में तकरीबन एक लाख लोग थे। लोगों को घेरे हुए 6 पाकिस्तानी जवान। सुरक्षा के नाम पर महज खानापूर्ति थी। तीन दिन और रात लगातार पैदल चलने के बाद काफिला महफूज स्थान पर पहुंचा। बाॅर्डर पर लोगों की अदला-बदली हो रही थी। यह तीन दिन जीवन के सबसे भयावह दिन थे। जिन्दगी कब मौत में तब्दील हो जाये, पता नहीं था। बुजुर्ग और बच्चे बैलगाड़ी पर थे। बैलों पर ज्यादा वजन न पड़े, इसलिए पिता जी हम भाइयों को पैदल ही चला रहे थे। नगर और शहरों में हिंसा फैली थी। रास्ते में लाशों के ढेर देखकर कोई रुकता नहीं था, बल्कि अपनी जान बचाने के लिए तेजी से आगे गुजरने की कोशिश रहती थी।’’
वे बताते हैं, ‘‘पाकिस्तान के गांव में मुसलमानों की संख्या ज्यादा थी, लेकिन कोई तनाव नहीं था। एक दूसरे के घर आना-जाना आम था। तीज-त्योहार संग मनाते थे। दुःख-सुख में बराबर की भागीदारी रहती थी। हमारे दोस्त ज्यादातर मुसलमान थे। हमारा साथ छूटने का उन्हें बहुत मलाल भी था। भारत में आने के बाद भी लम्बे समय तक पत्र व्यवहार जारी रहा, लेकिन समय के साथ वो भी खत्म हो गया। पाकिस्तान में पंजाबी और उर्दू हमारी भाषा थी। खेती और पशुपालन मुख्य काम था। कपास, गेहूं, गन्ना, दालों की पैदावार खास थी। पगड़ी, लुंगी, कुर्ता, कमीज, सलबार समान रूप से हिन्दू-मुसलमान पहनते थे। तब मुसलमानों में टोपी का चलन आम नहीं था। वे भी पगड़ी ही पहनते थे। घर में छोटी चक्की, चरखा, जानवरों की नाद, कुएं का चवूतरा, गांव की पगड़ंड़ियां मुझे आज भी याद हैं। काश हम एक बार वहां जा पाते……! हमारे गांव में कभी कोई दंगा नहीं हुआ था। 5 अगस्त, 1947 के बाद गांव अशान्त होने लगा। शहर से अखबार के माध्यम से आने वाली खबर गांव में दहशत फैलाती थी।’’
बेहड़ जी बताते हैं, ‘‘अपनी सरजमीं को छोड़ना आज भी अखरता है। भारत में भी जिन्दगी बहुत कठिन थी। जिस तरह भारत से जाने वाले मुसलमानों ने पाकिस्तान में हमारे घरों पर कब्जा कर लिया, उसी तरह हम लोग भी भारत में उनके खाली घरों में रहने लगे। लगभग एक साल बाद हमारा परिवार सहारनपुर आ गया। यहां मैंने मजदूरी की। हरिद्वार में चार साल तक रिक्शा चलाया। बाद में मलसा(किच्छा) में 15 एकड़ और बड़ाखेड़ा(गदरपुर) में 10 एकड़ जमीन हमें सरकार से मिली। इस तरह हमारा परिवार तीन जगह बिखर गया।’’ वे बताते हैं, ‘‘पाकिस्तान में भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा लगती थी। मैं कभी-कभी शाखा में जाया करता था। भारत में भी यह सिलसिला जारी रहा। 1957 में मेरी शादी हुई। कड़ी मेहनत से हमने तराई की दलदल जमीन को खेती के लिए तैयार किया।’’
जरनैल सिंह की कहानी
2-दिनेशपुर वार्ड न0 तीन निवासी जरनैल सिंह तब लायलपुर, इस्लामाबाद में रहते थे। इनके पिता गुरूवचन सिंह को अंग्रेजों ने हाथ देखकर 1905 में खेती करने के लिए जमीन दी थी। ऊंट और घोड़ों को पालने वालों पर अंग्रेज सरकार मेहरबान रहती थी। सेना में शामिल होने वाले घोड़ों के प्रशिक्षकों की सरकार विशेष मदद करती थी। विभाजन के समय जरनैल सिंह की उम्र आठ साल थी। बावजूद इसके उन्हें वो मंजर याद है।
वे बताते हैं, ‘‘ उनके दो चाचाओं की सगाई पाकिस्तान में हुई थी, लेकिन शादी से पहले ही पाकिस्तान छोड़ना पड़ा। भारत में आने के लगभग सात-आठ साल बाद उनकी शादी उन्हीं से हुई, जिनसे सगाई हुई थी। काफी खेजने के बाद चाचियों के परिवार का पता चला था। वे बताते हैं कि उनके खानदान के कुछ सदस्य पाकिस्तान नहीं छोड़ पाये। उस समय सुनवाई बहुत अच्छी थी। अंग्रेज अफसर हर छः माह में गांव का सर्वे करने आते थे। लोगों का मेल-जोल भी अच्छा था। धर्म के आधार पर कोई झगड़ा नहीं था। मस्जिद, मन्दिर और गुरूद्वारे में समान रूप से लोग आते थे।’’
जरनैल सिंह कहते हैं, ‘‘इतनी बड़ी तादात में लोगों का कत्लेआम होगा ऐसा सोचा भी नहीं था। 15 अगस्त, 1947 से तीन-चार रोज पहले मिलिट्री ने गांव को खाली करा दिया था। गांव से दूर एक स्थान पर कई गांवों के हिन्दू और सिख लोगों को जमा किया गया। लोग भूखे प्यासे ही चल दिये। लगभग 36 सौ बैलगाड़ियों का काफिला हमारे साथ था। लायलपुर में 15 दिन रुकने के बाद 13 दिन पैदल चलकर हमारा काफिला पटियाला पहुंचा। सरकारी कैम्प में हैजा की महामारी फैल गयी। रोज दस-बीस लोग मरने लगे। मृतकों का अन्तिम संस्कार तक नहीं हो सका। सरकारी गाड़ी लाशों को कैम्प के बाहर ले जाती थी। वो बहुत कठिन दौर था। ऐसे दिन भगवान किसी को न दिखाये। पाकिस्तान से आने के बाद लगभग दस साल बहुत अफरा-तफरी में बीते। पंजाब और हरियाणा में कई सेल्टर बदले गये। भटिंडा में सरकार ने जमीन दी, लेकिन वो उपजाऊ नहीं थी। टुकड़ों में मेरी पढ़ाई दसवीं तक हुई। 1970 में हम लोग तराई में आये। डिबडिबा और दिनेशपुर में आठ एकड़ जमीन ली। बंटवारा नहीं होना चाहिए था। धर्म के आधार पर तो बंटवारा बिलकुल भी जायज नहीं था।
अगले भाग में जारी…………………..
-रूपेश कुमार सिंहदास्तां-ए-विभाजन 1947 (भाग – एक)