दलित बंगालियों को पुनर्वास के नाम पर बाघ का चारा बना दिया

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तराई में बसे विस्थापित बंगाली समाज की आपबीती

भाग-13

दलित बंगालियों को पुनर्वास के नाम पर बाघ का चारा बना दिया

पीलीभीत में बंगाली शरणार्थियों का बसेरा चंदिया हजारा

-रूपेश कुमार सिंह

    मानव हैं, लेकिन अधिकारों से वंचित। घर है, लेकिन बेदखली की तलवार सिर पर। जमीन है, लेकिन मालिकाना हक नहीं। भारत में हैं, लेकिन शरणार्थी। वोट देते हैं, लेकिन सरकार में प्रतिनिधित्व नहीं। अस्पृश्य हैं, लेकिन अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं। सड़क बनाते हैं, लेकिन खुद के लिए रास्ता नहीं। रिफ्यूजी हैं, लेकिन सुविधाएं नहीं। जंगलों के बीच रहते हैं, लेकिन जंगल उनके नहीं। स्कूल नहीं, कॉलेज नहीं, पेयजल सुविधा नहीं, आवागमन की सुविधा नहीं, छात्रवृत्ति नहीं, बाढ़ की समस्या से निजात नहीं, खेती नहीं, काम-काज-रोजगार नहीं, बिजली नहीं, मूलभूत सुविधाएं नहीं। विस्थापन की पीड़ा लिए भारत-पाक विभाजन के पीड़ित बंगाली समाज के लोग आज भी व्यवस्थित और बेहतर जिन्दगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह आपबीती है बंगाली शरणार्थियों के गाँव चंदिया हजारा के बाशिन्दों की।

जनपद पीलीभीत के पूरनपुर तहसील से बीस किमी दूर है विस्थापित बंगाली समाज का मुख्य गाँव चंदिया हजारा। इसके अन्तर्गत दस सोसायटी हैं। मतलब बंगालियों की दस कॉलोनियां। इन कॉलोनियों में अन्य समाज के लोग नहीं हैं। पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये बंगाली शरणार्थियों को 1976 में यहाँ बसाया गया। पूरा क्षेत्र घनघोर जंगल से घिरा हुआ है। शारदा नदी नजदीक है। इसलिए चंदिया हजारा डूब क्षेत्र में आता है। जहाँ बंगाली बसे हैं, वह जमीन जंगलात की है। बसाया पुनर्वास विभाग ने, लेकिन बाशिंदों के पास कोई कागजात नहीं हैं। बेदखली का डर हमेशा सताता रहता है।

देश के 22 राज्यों में बसाया गया बंगाली शरणार्थियों को

1947 के विभाजन के पीड़ित पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये बंगालियों को देश के 22 राज्यों के जंगली, पठारी, पहाड़ी इलाकों के बीहड़ क्षेत्रों में पुनर्वास दिया गया। इनमें सबसे ज्यादा संख्या नमोःशूद्र और पौण्ड दलित जातियों के लोगों की है। अन्य लोगों में भी दलित जातियों के ही लोग हैं। जो ब्राहमण हैं, वे इन्हीं दलितों के पुरोहित हैं। बाकी सवर्ण एक प्रतिशत से भी कम हैं। उत्तराखण्ड की तराई जनपद ऊधम सिंह नगर व उत्तर प्रदेश के बिजनौर, रामपुर व पीलीभीत जिलों में सबसे ज्यादा बंगाली बसाये गये। लखीमपुर खीरी, बहराइच, कानपुर, बरेली, बादायूँ और मेरठ जिलों में भी बंगाली शरणार्थी बसाये गये। बेतरतीब पुनर्वास और सरकारी उपेक्षा के कारण इन इलाकों के बंगाली परिवार आज भी साधन सम्पन्न और व्यवस्थित नहीं हो पाये हैं। विडम्बना यह है कि दिनेशपुर क्षेत्र में बसे बंगालियों के अलावा कहीं भी इन्हें जमीन पर मालिकाना हक नहीं है। भूमिधारी हक पाने के लिए कई दफा आन्दोलन हुए, लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। दिनेशपुर में बंगालियों की जमीन रजिस्ट्रीशुदा है और इन्हें जमीन खरीदने-बेचने का अधिकार है। बाकी जगह जमीन लीज पर है। लीज भी अलग-अलग समय के लिए है। कई जगह तो लीज समाप्त भी हो चुकी है।

चंदिया हजारा में शारदा नदी के किनारे घने जंगल में 413 परिवारों को 1976 में बसाया गया। शुरू में आये 313 परिवारों को तीन-तीन एकड़ व बाद में आये 100 परिवारों को ढाई-ढाई एकड़ जमीन दी गयी। जमीन की खसरा-खतौनी पर बंगालियों की जोत दर्ज है, लेकिन आवंटन से संबंधित कोई कागजात उनके पास नहीं हैं। बाढ़ व आग लगने के कारण रिफ्यूजी कार्ड व अन्य जरूरी कागजात भी नष्ट हो गये हैं। जिस कारण स्थाई निवास प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र व अन्य प्रमाण पत्र बनाने में खासी परेशानी उठानी पड़ती है। चंदिया हजारा आज भी विकास की दौड़ में अन्य गाँवों की अपेक्षा बहुत पीछे है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तौर पर लोग पिछड़े हैं। वोट बैंक  के रूप में बंगाली समाज समय-समय पर अलग-अलग राजनीतिक दलों का पालनहार बना रहा। पिछले एक दशक से पूरनपुर क्षेत्र के तमाम बंगाली गाँव के लोग एकछत्र भाजपा को समर्थन व वोट कर रहे हैं। भाजपा को वोट देने का उन्हें कोई लाभ तो नहीं हुआ है, लेकिन स्थानीय लोगों को कहना है कि मोदी जी ही बंगालियों का भला कर सकते हैं। दूसरा भाजपा हिन्दुत्ववादी पार्टी है, जिस कारण आम बंगाली भाजपा के साथ है। भारत विभाजन के जख्मों को हरा बनाये रखने की राजनीति का आलम यह है कि लोग बेहतर जिन्दगी के लिए मताधिकार का इस्तेमाल भी नहीं कर सकते।

चंदिया हजारा के 82 वर्षीय बुजुर्ग शशांक सरकार, डॉ0 ठाकुर दास मण्डल(72), गोष्ठपद मण्डल(69) बताते हैं कि 1976-1980 तक चंदिया हजारा के इर्द-गिर्द 10 अन्य बंगाली कॉलोनियां भी बसीं। इन कॉलोनियों में ज्यादातर भूमिहीन बंगाली हैं। सिर्फ रहने के लिए जगह दी गयी थी। वीणापाणि, चन्द्र नगर, शान्ति निकेतन, सुभाष नगर, रामकृष्ण नगर, कृष्ण नगर, अरविन्द नगर चंदिया हजारा की प्रमुख सोसायटी हैं। इसके अलावा पूरनपुर तहसील में ढक्का, खिड़किया-बर्रादिया, राहुल नगर मजदूर बस्ती, रामनगर, गोभिया सराय, पुरैना तालुक महाराजपुर, सैल्हा, नौजेल्हा, कुतिया कबर, दुर्गापुर फुलचंदिया, रामकोट, चिमटिया, धुरिया-पलिया आदि दर्जनों बंगाली कॉलोनियां हैं। लोग बेहद गरीब हैं और मेहनत-मजदूरी करके जीवन बसर कर रहे हैं। सच कहे तो यहाँ रहने वाले लोग अपने मूलभूत अधिकारों से भी वंचित हैं। ये लोग सांसंे चलने को ही जीवन समझते हैं। सुख-सुविधाओं का घोर अभाव है।

विकास में 30 साल पिछड़ा है चंदिया हजारा बंगाली गाँव

स्थानीय लोग बताते हैं कि जिस जमीन पर वे काबिज हैं, उस पर राजस्व व वन विभाग में विवाद है। पुनर्वास विभाग समाप्त हो चुका है दशकों पहले। जहाँ एक ओर जंगली जानवर आये दिन लोगों को अपना शिकार बनाते रहते हैं, वहीं दूसरी ओर वन विभाग के अधिकारी भी बंगालियों को झूठे मुकदमे में फंसाकर उत्पीड़न करते हैं। जंगल से जलाने की लकड़ी लाना भी अपराध है। जमीन पर लोन नहीं ले सकते। सिर्फ खेती ही की जा सकती है। सारा क्षेत्र डूब क्षेत्र है, इसलिए गन्ने की पैदावार के अलावा अन्य फसल नाममात्र की होती है। गन्ने का मूल्य कभी समय पर नहीं मिलता। लोगों के पास आय के साधन बहुत सीमित हैं। चंदिया हजारा क्षेत्र उत्तराखण्ड के बंगाली गाँवों से आज भी तीस साल पीछे है। ऐसी लाचार, बेबस स्थिति तराई में बसे बंगाली समुदाय की अन्यत्र कहीं नहीं है। यह देरी से पुनर्वास की रस्म अदायगी की मिसाल है। दशकों तक रिफ्यूजी कैम्पों में सड़ने के बाद पुनर्वास का नमूना। विभाजन के शिकार दलित बंगालियों को 22 राज्यों में इसी तरह घने जंगलों में बसाकर बाघ का चारा बना दिया गया। अन्यत्र हालात सुधरे हैं, लेकिन पीलीभीत में नहीं।

चंदिया हजारा की सभी सड़कें खड़ंजा हैं। बाढ़ हर साल आती है और महीनों पानी जमा रहता है, इसलिए बाढ़ शरणालय स्थायी तौर पर बना हुआ है। गाँव में एक सार्वजनिक सुलभ शौचालय है। अभी भी बहुत परिवारों में शौचालय नहीं है। लोग खुले में भी शौच करते हैं। गाँव के शुरू में एक बड़ा सा फुटबाल मैदान है। सुबह-शाम यहाँ काफी रौनक रहती है। गाँव के तमाम आयोजन जैसे दुर्गापूजा, कीर्तन, शादी-पार्टी इत्यादि इसी मैदान में होते हैं। पास ही सड़क किनारे छोटी सी मार्केट है। आवश्यक चीजे लेने और बीमार पड़ने पर दवा लेने भी पूरनपुर या शेरपुर जाना होता है। महिलाओं के लिए प्रसूति गृह भी नहीं है। गाँव में एक जूनियर हाईस्कूल है। आठवीं पास करने के बाद अमूमन बच्चे, खास तौर पर लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं। जिनको पढ़ना है उन्हें इण्टर करने के लिए शेरपुर या पूरनपुर ही जाना होता है। यह बहुत खर्चीला है। प्रति दिन 80 रुपये लौटा-फैरी के देने होते हैं। अन्य खर्च अलग से। ऐसे में चाहकर भी बच्चे पढ़ नहीं पाते हैं। बच्चियों की शिक्षा का तो बहुत बुरा हाल है।

बीड़ी बनाना और दिहाड़ी-मजदूरी के अलावा आय का कोई साधन नहीं

बीड़ी बनाने का काम गाँव के लगभग हर घर में होता है। खास तौर पर बच्चे और महिलाएं इस काम में लगी हुई हैं। बीड़ी बांधना यहाँ की मुख्य आजीविका है। कच्चा माल पूरनपुर से आता है। पूरनपुर में बीड़ी के कई कारखाने हैं। इसके अलावा कुछ लोग चटाई व मछली पकड़ने का जाल बनाने का काम भी करते हैं। गाँव के लोग बताते हैं कि जब चंदिया हजारा बसा तो शशांक सरकार, गौरंग अधिकारी, नलिनी रंजन बाबली, रवीन्द्रनाथ अधिकारी, विनोद कर्मकार, देवदास मण्डल, देवीचरण मण्डल, नवीन मण्डल, जितेन्द्र मण्डल आदि नेतृत्वकारी भूमिका में थे।

शशांक सरकार बताते हैं कि 1976 में रुद्रपुर के ट्रांजिट कैम्प से उन्हें चंदिया हजारा भेजा गया। चंदिया हजारा वन रेंज था, उसी के नाम से गाँव का नाम पड़ा। पूरनपुर तक सरकारी वाहन लोगों को लेकर गया, वहाँ से पैदल ही लोग चंदिया हजारा तक पहुंचे। जिलाधिकारी रवि माथुर हाथी पर बैठकर आगे-आगे बढ़ रहे थे, उनके पीछे हम दर्जनों लोग पैदल चल रहे थे। पुनर्वास विभाग के कर्मचारी और अधिकारी भी थे। राशन-पानी की व्यवस्था प्रशासन की ओर से की गयी। हम लोग कई दिन टेन्ट में रहे। झोपड़ी बनाने का काम शुरू किया गया। जंगल से लकड़ी जुटाई गयी। शेष सामान झोपड़ी बनाने का प्रशासन ने दिया। लगभग छः माह में सभी परिवारों के लिए झोपड़ी बन कर तैयार हो पायीं।

वे बताते हैं कि महिलाओं और बच्चों को लेकर जंगल में रहना बहुत मुश्किल था, लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। मरना-जीना वहीं था। कैम्प में वापसी संभव नहीं थी। मन मार के हम लोग चंदिया हजारा में जीवन को गति देने में जुट गये। साथ के कई लोगों को शेर ने मौत के घाट उतार दिया था। माला रेंज के गाँवों में अब भी दलित शरणार्थी बाघ का चारा बने हुए हैं। जहाँ हाल में 27 लोगों को बाघ ने मौत के घट उतार दिया। डर के साये में समय कटता था। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता था, लेकिन रात को जंगली जानवर झोपड़ी तक आ जाते थे। वे बताते हैं कि 1980 में प्राइमरी स्कूल खुला और 1985 में कच्ची सड़क बनी। चंदिया हजारा में आज महज पाँच युवा सरकारी नौकरी में हैं। जिसमें से चार अध्यापक व एक युवा फौज में है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिभाएं हैं, लेकिन उन्हें उभरने का कोई प्लेटफार्म नहीं है। लोग अपने हाल पर जीने-मरने को मजबूर हैं।

नागरिकता, आरक्षण और स्थाई निवास प्रमाण पत्र नहीं मिलने की वजह से शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार की भारी दिक्कत है। नदी के कटाव में जमीन भी आधी-अधूरी रह गई है। दिहाड़ी-मजदूरी के अलावा आजीविका का दूसरा कोई साधन नहीं है। पीलीभीत जिला उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में है। पूरनपुर शारदा नदी के किनारे पर बसा है। यहाँ कल-कारखाने नहीं हैं, जहाँ लोगों को नौकरी और मजदूरी मिल सके। अगल-बगल के बड़े फार्मरों के यहाँ बंगाली समाज के लोग दिहाड़ी-मजदूरी करते हैं।

वास्तव में तत्कालीन सरकार के द्वारा पुनर्वास का जो छलावा बंगाली समाज के साथ किया गया, उसका दंश आज भी चंदिया हजारा के लोग झेल रहे हैं। क्या बंगाली विस्थापितों के हालात बदल पायेंगे? इसका जवाब देगा कौन?

-रूपेश कुमार सिंह

स्वतंत्र पत्रकार

9412946162

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