भाग- आठ
रिफ्यूजी कैम्प में बंगाली शरणार्थियों को कर्मपंगु बनाया सरकार नेः शंकर चक्रवर्ती
-रूपेश कुमार सिंह
भारत-पाक विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर आये बंगालियों को देश में पहली बार 1951-52 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पण्डित गोविन्द बल्लभ पंत की पहल पर उत्तराखण्ड की तराई में बसाया गया। सरकारी पुनर्वास योजना के तहत दिनेशपुर की 36 काॅलोनियां देशभर में विस्थापित बंगालियों का पहला आशियाना है। दिनेशपुर से ही देश के कुल 22 राज्यों में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों के हक-हकूक एवं उचित पुनर्वास की लड़ाई लड़ी गयी। तराई की भौगोलिक एवं भाषाई विषमता ने बंगाली समाज में संगठन की जरूरत महसूस कराई। बंगालियों की बसासत के साथ ही तराई में उनके आन्दोलन का दौर शुरू हो गया था, जो सतत रूप से आज भी जारी है। सबसे पहले 1954 में तीन गाँवों बसंतीपुर, पंचाननपुर और उदयनगर के रजिस्ट्रेशन रद्द होने के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ। रुद्रपुर में धरना दिया गया। भूख हड़ताल भी हुई।
तराई में बंगालियों की बसासत के साथ ही संगठन और आन्दोलन शुरू हुए
बंगाली उदवास्तु समिति का गठन हुआ। फौज से रिटायर्ड होकर आये राधाकान्त राय अध्यक्ष और पुलिन कुमार विश्वास महासचिव चुने गये। बंगाली विस्थापित समाज का यह पहला संगठन था। 1956 में कृषि सुधार आन्दोलन समिति की ओर से किया गया। दिनेशपुर से सैकड़ों बंगाली विस्थापितों ने रुद्रपुर के लिए पैदल मार्च किया। पुनर्वास कार्यालय के सामने 21 दिनों तक लगातार धरना-प्रदर्शन हुआ। बंगाली समाज खेत की जुताई, खेत में मौजूद बड़े पेड़ों का कटान, खाद-बीज, औजार व अनुदान देने की माँग कर रहे थे। दमन के बावजूद आन्दोलन सफल रहा। कई माँगें मानी गयीं। साथ ही बंगाली समाज में ताकत का संचार हुआ और समाज को नेतृत्व भी मिला।
यह जानकारी दे रहे हैं भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत बंगाली कर्मचारी मंच के अध्यक्ष शंकर चक्रवर्ती। वे तराई में बसे रिफ्यूजी बंगाली समाज में दूसरी पीढ़ी के हैं। उन्होंने विभाजन की पीड़ा और विस्थापन का दृश्य देखा तो नहीं है, लेकिन शिद्दत से महसूस किया है। शंकर चक्रवर्ती छात्र जीवन से ही बंगाली शरणार्थियों के हक-हकूक के लिए संघर्ष कर रहे हैं। तराई में बसे बंगाली समाज का उनके पास अच्छा अध्ययन है। इतिहास की समझ है। इस संवाद में हम उनसे तराई में बंगाली समाज के आन्दोलनों व संगठनों पर चर्चा करेंगे।
शंकर चक्रवर्ती बताते हैं कि पूर्वी पाकिस्तान में उनका घर सूजतपुर गाँव थाना मनीरामपुर जिला जैशोर में था। लाखों विस्थापित बंगालियों की तरह उनका परिवार भी पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल और वहाँ तमाम शारणार्थी कैम्पों में रहने के बाद रुद्रपुर पहुँचा। घोर अमानवीय यातनाएं सहन कीं। हमारे बुजुर्गों ने बहुत खतरनाक दौर जिया है। उनकी पीड़ा को शब्दों में बयां करना मुश्किल है। वे बताते हैं कि तराई में बसना अपने आप में एक बड़ा संघर्ष था। बसासत के साथ ही बंगाली समाज को आन्दोलन में उतरना पड़ा। 1954 के बाद 1956 में रुद्रपुर में बड़ा आन्दोलन हुआ। दिनेशपुर के जंगल में बंगालियों को सरकार ने लाकर बिना किसी मदद के फेंक दिया। जीवन को कैसे गति दें, इसके लिए पुरानी पीढ़ी को जीतोड़ मेहनत करनी पड़ी। सरकारी मदद, जमीन को जोतने-बोने के लिए 1956 में दूसरी दफा बंगाली समाज सरकार के खिलाफ लामबंद हुआ। मई का महीना था। दिनेशपुर दुर्गा मंदिर में बैठक के बाद तपती धूप में सैकड़ों की संख्या में बंगाली महिला-पुरूष, बच्चे-बुजुर्गों ने रुद्रपुर के लिए पैदल मार्च किया। खुले आसमान के नीचे धरना शुरू हो गया। बांग्ला के अलावा लोगों को कोई दूसरी भाषा नहीं आती थी। चुनिंदा लोग ही हिन्दी बोल पाते थे। स्थानीय लोगों के लिए बांग्ला भाषा-बोली सुनना आकर्षक होता था। स्थानीय लोगों ने बंगाली समाज के हर आन्दोलन व बसासत में मदद की। धरना स्थल पर दाल-भात पकता रहा। केले के पत्ते पर लोग खाना खाते थे। 21 दिनों तक लोग वहीं डटे रहे। रोज नये लोग आन्दोलन में शामिल होते तो पुराने घर लौट जाते। तमाम प्रशासनिक दमन और उत्पीड़ के बाद भी लोग जमे रहे। अन्ततः प्रशासन को कई मांगें माननी पड़ीं।
पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों पर अलग-अलग मानदण्ड
सरकारी रवैये के खिलाफ लोगों में असंतोष फैल रहा था। लोग भूख से मर रहे थे। जंगली फल-सब्जी खाकर समय काटा जा रहा था। सिर छुपाने को ठीक से छप्पर नहीं था। इधर दिनेशपुर के आसपास रुद्रपुर, गदरपुर, किच्छा में पश्चिमी पाकिस्तान से आये पंजाबी शारणार्थियों के दर्जनों गाँव ठीक से बस चुके थे। लेकिन बंगाली शरणार्थी अपनी किस्मत पर आँसू बहा रहे थे। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं था। इस भेदभाव ने भी बंगालियों के भीतर गुस्से का संचार किया और संगठित होकर लड़ने के लिए मजबूर किया। वे बताते हैं कि 1947 में एक ही वजह से पंजाबी और बंगाली शरणार्थी भारत में दाखिल हुए थे। भारत में बसना पंजाबियों और बंगाली हिन्दुओं का हक था। सिख और पंजाबियों का सेटलमेंट तो साल दो साल में हो गया। लेकिन बंगाली समाज के लोगों का आना-जाना 1971 तक चलता रहा। भारत सरकार इनके लिए कोई स्पष्ट नीति बना ही नहीं पायी। जिल कारण आज तक बंगाली समाज का उचित पुनर्वास नहीं हो पाया है। हजारों की संख्या में बंगाली भूमिहीन हैं।
शंकर चक्रवर्ती बताते हैं कि सिख व पंजाबी शरणार्थियों ने भारत में अपने हक और पुनर्वास की लड़ाई कम्यूनिटी के तौर पर की। पूरा पंजाब उनके साथ था। राजनीतिक तौर पर ये दखल रखते थे। लेकिन बंगाली शरणार्थियों के प्रत्येक परिवार ने अपनी लड़ाई खुद लड़ी। पश्चिम बंगाल के बंगालियों, खासकर कुलीन वर्ग ने विस्थापित बंगालियों की मदद नहीं की। सरकारी तौर पर जरूरत के हिसाब से सहायता नहीं हुई। कोलकाता में एक बड़ा भेद बंगालियों में आज भी देखने को मिलता है। विस्थापितों को बांगाल कहा जाता है और पश्चिम बंगाल के लोग घोटी (संभ्रांत) कहलाते हैं। तराई में सिख व पंजाबी शरणार्थियों को 15-15 एकड़ जमीन प्रत्येक परिवार को दी गयी, वहीं बंगालियों को शुरू में 8 एकड़, फिर 5, 3, 2 और बाद में एक एकड़ जमीन दी गयी। यह सरकार का बड़ा पक्षपात है। पंजाबी शरणार्थियों को पाकिस्तान में छोड़ी सम्पत्ति का मुआवजा भी दिया गया। बंगालियों को मुआवजा नहीं मिला। उनकी नागरकिता पर सवाल नहीं उठे, बंगाली विस्थापित घुसपैठिया करार दिये गये।
1956 में जमीन सुधार आन्दोलन के बाद बंगाली समाज ने नागरिकता और अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग उठाई। 1960 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चन्द्र राय को लेटर लिखा। सवाल किया कि कोलकाता में कौन-कौन बंगाली जातियां अनुसूचित जाति में शामिल हैं। बंगाल सरकार ने लेटर लिखकर उत्तर प्रदेश सरकार को बताया कि नमोःशूद्र, पौण्डू, माझी, नुनिया, धूनिया, नाई, धोबी, राजवंशी, चमार, मोची, मछुआरा सहित 12 जातियां अनुसूचित जाति में शामिल हैं। पुनर्वास विभाग ने इन बंगाली जातियों को अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र देना शुरू किया। लेकिन तहसील स्तर पर इसे मान्यता नहीं मिली। हालांकि दो दशक तक इसका लाभ तमाम बंगालियों को मिला। शंकर चक्रवर्ती कहते हैं कि बंगाली समाज आज तक दिगभ्रमित हो रहा है। पहले भारत सरकार ने कैम्प में रखकर बंगालियों को कर्मपंगु बनाया। फिर पुनर्वास के नाम पर जंगलों में नारकीय जीवन जीने को लावारिस छोड़ दिया। इस दौरान 1956 के आन्दोलन के नतीजतन दिनेशपुर में जूनियर हाईस्कूल, आई0टी0आई0, प्राथमिक अस्पताल और प्राइमरी स्कूल खुले। शक्तिफार्म में भी स्कूल खुले।
ढीमरी ब्लाक के जंगल में भूमिहीनों को बसाने की लड़ाई में शामिल हुआ बंगाली समाज
1966 में बांग्ला भाषा को लेकर आन्दोलन हुआ। रोहिताश्व मल्लिक, सोमनाथ वैद्य ने इसका नेतृत्व किया। परिणाम स्वरूप शक्तिफार्म, दिनेशपुर और रुद्रपुर के जनता इण्टर काॅलेज में बांग्ला विषय शुरू हुआ। इससे पूर्व बंगाली समाज 1958 में ढीमरी ब्लाक के जंगल में 40 गाँवों को बसाने के आन्दोलन में पर्वतीय और बुक्सा जनजाति के आन्दोलन में भी शामिल रहा। इस आन्दोलन में पुलिन बाबू कई बार जेल गये और उनके घर की कुर्की भी हुई। 1970 में भाषा आन्दोलन फिर शुरू हुआ। पलाश विश्वास, हरिपद राय, अनादि रंजन हाल्दार ने बांग्ला का पेपर देवनागरी में आने का विरोध किया। बांग्ला लिपी में प्रश्नपत्र की माँग लेकर दिनेशपुर हाईस्कूल में लम्बी हड़ताल चली। अब बंगाली समाज में पढ़ाई के लिए जागरूकता आने लगी थी। शैक्षणिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को तेज करने के उद्देश्य से 1974-75 में अरूणोदय संघ का गठन हुआ। हरिकृष्ण ढाली, नारायण महाजन, अधीर सरदार, पुलिन मण्डल, पलाश विश्वास ने युवाओं को शिक्षा से जोड़ने के लिए काम शुरू किया। दिनेशपुर में एक पुस्तकालय की स्थापना की।
इस बीच बंगाली लोग तराई की पृष्ठभुमि से अच्छी तरह से परिचित हो चुके थे। नागरिकता, अनुसूचित जाति का दर्जा और उचित पुनर्वास अभी भी प्रमुख मुद्दे थे। जिसके लिए तमाम तरह से सरकार पर दवाब बनाने का काम चल रहा था। 1978 में पुनर्वास विभाग खत्म कर दिया गया। इसका काम-काज तहसील और एसडीएम को दे दिया गया। कांग्रेस और खास कर एन0 डी0 तिवारी बंगालियों की पसंद थे, लेकिन राजनीति में बंगाली समाज की कोई पकड़ नहीं थी। समस्याएं भी जस की तस बनी हुईं थीं। 1984 में राजनीति में दखल के लिए उत्तर प्रदेश बंगाली यूथ एसोसिएशन का गठन हुआ। इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद दिसम्बर 1984 में आम चुनाव हुए। जिसमें बंगाली यूथ एसोसिएशन की ओर से पुलिन बाबू को संसदीय चुनाव में उतारा गया। पहली बार विस्थापित बंगाली समाज से कोई चुनाव में खड़ा हो पाया। कांग्रेस से सत्येन्द्र चन्द्र गुड़िया मैदान में थे। एनडी तिवारी को खुद चुनाव प्रचार में उतरना पड़ा। हालाँकि पुलिन बाबू को मात्र 2222 वोट मिले, लेकिन इसका गहरा राजनीतिक असर हुआ।
1988 में महतोष मोड़ काण्डः 16 बंगाली महिलाओं के साथ हुआ था बलात्कार
दुर्गापूजा के समय 1988 में महतोष मोड़ ने बंगाली समाज में उबाल पैदा कर दिया। रात में जात्रागान(नाटक) चल रहा था। सब्बीर और मोहब्बे नाम के दो बदमाशों के साथ मिलकर कुछ पुलिस वालों ने 16 महिलाओं के साथ बलात्कार किया। प्रतिरोध में ग्रामीणों ने पुलिस चैकी पर उग्र प्रदर्शन किया। इसके बाद पुलिस ने पूरे गाँव में जमकर तांडव मचाया। किसी भी पुरूष को गाँव में टिकने नहीं दिया। मार-पीट के साथ तोड़-फोड़ की। इस घटना का पूरे प्रदेश में विरोध हुआ। आई0पी0एफ0 ने आन्दोलन का नेतृत्व किया। कृष्णा अधिकारी, राजा बहुगुणा, बहादुर सिंह जंगी, मानसिंह पाल, नंदिनी जोशी, विमला रौथाड़, सुभाष चतुर्वेदी, दीपक बोस, हरेन्द्र नाथ सरकार, विरंचीपद राय, कमला पंत, उमा भट्ट आदि ने आन्दोलन में ताकत लगा दी। तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के एक विवादित बयान ने क्षेत्र में तहलका मचा दिया। 35 लोगों को जेल में ठूँस दिया गया। बंगाली समाज तिवारी और कांग्रेस पार्टी से बेहद नाराज था। एक जनवरी 1989 को एनडी तिवारी महतोष मोड़ पहुंच गये। मुकदमें वापस लेने और बंगालियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की घोषणा की। बंगाली समाज को कांग्रेस से जोड़े रखने के लिए तिवारी को बंगाली छात्रों के लिए अनुसूचित जाति के तहत मिलने वाली छात्रवृत्ति की शुरूआत करनी पड़ी। लेकिन बंगालियों को अनुसूचित जाति का दर्जा आज तक नहीं मिला।
1994 में बंगाली कल्याण समिति और बंगाली कर्मचारी मंच का गठन
1994 में इलैक्ट्रानिक वोट लिस्ट तैयार हुई। जिसमें बंगालियों के नाम हटा दिये गये। इस मसले ने खूब तूल पकड़ा। शंकर चक्रवर्ती बताते हैं कि 24 अप्रैल, 1994 को रुद्रपुर नगर पालिका में बंगाली समाज की बैठक हुई। बंगाली कल्याण समिति और बंगाली कर्मचारी मंच दो संगठनों का गठन हुआ। विरंचीपद राय, समिति के अध्यक्ष व के के दास महासचिव चुने गये। रोहिताश्व मल्लिक कर्मचारी मंच के अध्यक्ष और शंकर चक्रवर्ती महासचिव बने। व्यापक आन्दोलन हुआ। प्रशासन ने अपनी भूल सुधार की और नये सिरे से वोटर लिस्ट तैयार की गयी।
2001 में पुलिस भर्ती के लिए कुछ बंगाली युवाओं ने आवेदन किया। स्थायी निवास प्रमाण पत्र अवैध बताते हुए बंगाली युवाओं को भर्ती से बाहर कर दिया गया। इस बार लाखों की संख्या में बंगाली समाज एकत्र हुआ। लम्बा आन्दोलन चला। भाजपा-कांग्रेस में खलबली मच गयी। 2002 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने गदरपुर सीट से प्रेमानन्द महाजन को टिकट दिया। महाजन दो बार चुनाव जीते और दस साल विधायक रहे। वे बंगाली विस्थापितों में पहले विधायक बने। रुद्रपुर और सितारगंज क्षेत्र में बंगाली वोटरों ने कांग्रेस का दामन छोड़कर दूसरे दलों का समर्थन किया।
एन्थोग्राफी रिपोर्ट पर अमल क्यों नहीं हुआ?
2003 में उत्तराखण्ड सरकार ने पंतनगर विश्व विद्यालय को बंगाली समाज को अनुसूचित जाति का दर्जा देने के बावत एंथोग्राफी रिपोर्ट तैयार करने का काम सौपा। डाॅ पी जी विश्वास की देख-रेख में रिपोर्ट शासन को 2008 में भेजी गयी। लेकिन आज तक कोई समाधान नहीं निकला। अब केन्द्र और राज्य में भाजपा का शासन है। बंगाली समाज इस समय भाजपा के पक्ष में भी है, लेकिन बंगाली समाज की मूलभूत समस्याओं पर भाजपा का भी कोई ध्यान नहीं है।
पुनः एक सशक्त सांस्कृतिक आन्दोलन की जरूरत
शंकर चक्रवर्ती कहते हैं कि सरकार चाहे जो भी हो उसने बंगाली समाज को छलने का ही काम किया है। वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया है। तमाम मसले ऐसे हैं जिनपर समाज को सचेत होकर पुनः आन्दोलन की ओर बढ़ना चाहिए। आन्दोलन और जनगोलबंदी ही बंगाली समाज का उत्थान कर सकती है। लेकिन स्थितियां इसके विपरीत हैं। 2001 के आन्दोलन के बाद उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश मंे बसा बंगाली समाज राजनीतिक दलों में बँट गया। विस्थापितों के संगठन मंे बिखराव आ गया। पहले जनहित के मुद्दों पर सारे विस्थपित एक जुट हो जाते थे। अब सिर्फ संगठनों पर कब्जे के लिए मारामारी है। बांग्ला भाषा से नई पीढ़ी को कोई मोह नहीं है। जात्रागान समेत सांस्कृतिक गतिविधियां ठप हैं। व्यापक पैमाने पर विस्थपित अपनी जमीन से बेदखल हो गये हैं और मजदूरी करने लगे हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य है। नई पीढ़ी नशे और सट्टेबाजी की गिरफ्त में है। आज बंगाली समाज में एक सांस्कृतिक आन्दोलन की जरूरत है।
रूपेश कुमार सिंह
प्रेरणा-अंशु, दिनेशपुर
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