पड़ताल…… भाग – एक
किसकी साजिश का परिणाम था पंतनगर गोलीकाण्ड…?
-रूपेश कुमार सिंह
लाशों के ढेर में खून से लथपथ अपने निढाल शरीर को मृतकों में शुमार करना उसने ठीक समझा। सांसों के उतार-चढ़ाव को थाम लिया। बाजू और छाती से निकल रहे खून के फव्वारे से उसने अपने मुंह को सुर्ख लाल कर लिया। पीड़ा कहीं दफन हो गयी और वो अचेत होकर औंधे मुंह गिर पड़ा। शराब के नशे में चूर कानून के रखवालों ने उसके मूर्च्छित शरीर को बंदूक के बट और नोक से कोंचकर उसके मर जाने की पुष्टि की। दो पुलिस वालों ने उसके शरीर को हवा में उछालते हुए लाशों से भरे पीएससी के ट्रक में फेंक दिया। शवों को ठिकाने लगाने और पोस्टमार्टम के लिए रुद्रपुर अस्पताल लाया गया। पता चला वो दो गोली लगने के बाद भी जिन्दा है। उसे रामपुर अस्पताल पहुंचा दिया गया, कुछ सुधार होने पर हल्द्वानी जेल। धीरे-धीरे घाव भर गये, लेकिन निशान आज भी जिन्दा हैं। वो खौफनाक मंजर याद करके आज भी उनकी रूह कांप जाती है। आंखों में दर्द है, जुबान पर व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा। लब खामोश हैं, नफरत की टीस गहरी है। सवाल आज भी एक पहेली है, आखिर किसकी साजिश का परिणाम था पंतनगर गोलीकाण्ड…?
बुजुर्ग पारस की आप-बीती
61 वर्षीय बुजुर्ग पारस की यह आप-बीती महज एक बानगी है। गोलीकाण्ड के 41 वर्ष बाद पंतनगर में आज भी दर्जनों पीड़ित मौजूद हैं, जिनसे उस क्रूर व अमानवीय दास्तां को जाना जा सकता है। तमाम पीड़ित काल के गाल में समा चुके हैं। जो बचे हैं वो आज उस मंजर को याद नहीं करना चाहते। शासन-प्रशासन, पुलिस व पीएससी ने जो जख्म उन्हें दिये हैं, उसे याद करते हुए हर साल 13 अप्रैल को बड़ी तादात में श्रमिक व कर्मचारी एकत्र होकर जुल्म के खिलाफ एकजुट होने का संकल्प जरूर दोहराते हैं।
पारस बताते हैं ’’ 13 अप्रैल 1978 को सैकड़ों की संख्या में पंतनगर विश्व विद्यालय के कर्मचारी व कृषि फार्म के श्रमिक भ्रष्ट कुलपति डाॅ डी पी सिंह के खिलाफ सभा व प्रदर्शन करने के लिए जमा हुए थे। रामलीला मैदान से जुलूस तराई भवन के लिए चलने लगा। नारेबाजी करते हुए लोग आगे बढ़ रहे थे। जुलूस में महिलाएं और बच्चे भी थे।’’ पारस बताते हैं कि उस समय उनकी उम्र 21 साल थी। शहीद चैक पर पुलिस और पीएससी ने आन्दोलनकारियों को चारों तरफ से घेर लिया। लाठीचार्ज के बाद अंधाधुंध गोली चलाना शुरू कर दिया। पारस बताते हैं कि उनके दांये हाथ के बाजू पर एक गोली लगी। दूसरी गोली छाती के किनारे से मांस को चीरते हुए निकल गयी। पुलिस और पीएससी के जवान मजदूरों का भूखे शेर की तरह शिकार कर रहे थे। कई घायलों को बाद में भी गोली मारकर खत्म कर दिया। वो किसी को भी जिन्दा नहीं छोड़ना चाहते थे।
मुझे मरा हुआ मान लिया
पारस बताते हैं कि दो साथी उन्हें उठा कर भागने लगे, लेकिन सामने से फिर गोलीबारी शुरू हो गयी। वो दोनों मुझे छोड़कर वहां से भाग गये। पुलिसवालों ने बंदूक की नोंक से मेरी पीठ पर कई वार किये। अन्त में उन्होंने मुझे मरा हुआ मान लिया और वहां से चले गये। काफी देर बाद पुलिस ने लाशों को ट्रक में भरना शुरू किया। मुझे भी लाशों से भरे ट्रक में डाल दिया। शाम को रुद्रपुर अस्पताल लाया गया। पारस कहते हैं कि जिस ट्रक में उन्हें डाला गया, उसमें लगभग 15-20 लाशें थीं। तीन लोग उसमें जिन्दा निकले। जिसमें से मैं भी एक था। किसी अधिकारी के कहने पर हम तीनों को रामपुर नवाब अस्पताल में भर्ती कराया गया। कुछ हालत सुधरी तो हमें हल्द्वानी जेल भेज दिया। महीनों जेल में रहने के बाद परिवार और यूनियन के लोगों ने हमारी जमानत करायी।
दोषी कौन था? उसे सजा क्यों नहीं मिली?
पारस कहते हैं कि 41 साल बाद भी पीड़ितों को न्याय नहीं मिला है। सैकड़ों लोगों की जान की कीमत तब भी शासन-प्रशासन के लिए कुछ नहीं थी और आज भी कुछ नहीं है। पारस लगभग 14 साल बाद न्यायालय से दोष मुक्त तो हुए, लेकिन किस साजिश के तहत पंतनगर में गोलीकाण्ड हुआ, उसका खुलासा आज तक नहीं हुआ। दोषी कौन था? उसे सजा क्यों नहीं मिली? जस्टिस श्रीवास्तव आयोग की रिपोर्ट पर अमल क्यों नहीं हुआ? सवाल इतिहास के पन्नों में आज भी प्रबल हैं।
अगले भाग में जारी……………