कोरोना डायरी
पिछले दिनों मेरे कस्बे के एक लाला जी गुजर गये। बुजुर्ग थे, पर इस दुनिया को अलविदा कहने की नौबत तो नहीं थी अभी, लेकिन अचानक ही निकल लिए। चार दिन की बीमारी, उल्टी-दस्त में। कोरोना के भय से न तो रिश्तेदार आये और न ही नगर के लोग। गिने-चुने लोग घाट पर मौजूद थे। चिता सजाने को कोई तैयार न था। लकड़ी उठाने से भी लोग कतरा रहे थे, जैसे मानो लकड़ी छूने भर से उन्हें कोरोना हो जायेगा। शव को हाथ लगाने की बात सोचना तो दूर की कौड़ी थी। मैंने और दो-तीन लोगों ने चिता की लकड़ियां सजाईं। घाट पर रहने वाले एक साधू ने हमारी मदद की। जो रिश्तेदार नहीं पहुंच पाये थे, उन्हें दिवंगत आत्मा के दर्शन मोबाइल पर वीडियो काॅल के जरिए कराने में दो-चार लोग व्यस्त थे। खैर, जैसे-तैसे•••
लोग दिया जलाने को तो छटपटा रहे हैं, लेकिन लाश जलाने को तैयार नहीं हैं। कोरोना के डर से न तो कंधा देने वाले मिल रहे हैं और न ही चिता सजाने वाले। यह कैसी भेड़ चाल है? लोगों को सांत्वना देने के लिए आसपास के लोग तैयार नहीं हैं और कथित हौसलाफजाई के लिए पागल हुए फिर रहे हैं?? सामाजिक ताना-बाना और सामंजस्य तो पहले से ही तार-तार हो रखा है। लोगों के बीच साम्प्रदायिकता की नफरत तेजी से बढ़ रही है, ऐसे में फिज़िकल डिस्टैंस को सोशल डिस्टैंस में तब्दील करके दूरियाँ और पनप रही हैं। पिछले दस दिन में तीन मौत में जा चुका हूँ। शमशान घाट तक अन्तिम संस्कार में 20 लोगों से ज्यादा न पहुंचें बात समझ में आती है, लेकिन आप-पास के लोग इस दुःख की घड़ी में अपने दरवाजे से बाहर तक न निकलें, कितनी कायराना हरकत है यह??? यह जानते हुए कि संतप्त परिवार का बाहर के लोगों से मिलना-जुलना नहीं है, फिर भी सामान्य मौत को लोग कोरोना से जोड़ कर दूरी बना रहे हैं। वही लोग कथित साहस बढ़ाने के लिए ताली-थाली बजाने और मोमबत्ती जलाने की पैरवी कर रहे हैं। जब तुम्हारे भीतर मदद करने का साहस नहीं है, तो तुम उन लाखों पुलिस वालों, सफाईकर्मचारियों, प्रशासनिक अधिकारियों और सबसे ज्यादा अपनी जान-जोखिम में डाल कर मरीजों का इलाज कर रहे लाखों डाक्टरों और स्टाफ की क्या खाक हौसलाफजाई करोगे? तुम सिर्फ नौटंकी कर सकते हो। और इस किस्म की नौटंकी से कोरोना हारने वाला नहीं है। न ही मंदिर-मस्जिद से कोरोना की रोकथाम हो सकती है। उसके लिए हमें अपने स्वास्थ्य विभाग को मजबूत करना होगा। लोगों में जागरूकता लानी होगी। तमाशबीन बने रहे वालों में मैं नहीं हूँ, और भीड़ के साथ बहने की आदत भी नहीं है। मैं कल भी एक लाश को चिता सजाकर अग्नि के हवाले करके आया हूँ, वो भी रानीबाग, हल्द्वानी जाकर। मुझे झूठे दिये जलाने की जरूरत नहीं है। हाँ, कोरोना को हराने के लिए और लोगों की मदद के लिए मेरे दिल, दिमाग में हमेशा अग्नि प्रज्वलित है। आप लोग अपने बारे में विचार करो।
जय हिन्द!
संलग्न फोटो रानीबाग, हल्द्वानी घाट से•••
– रूपेश कुमार सिंह
दिनेशपुर